गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 249

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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विहित-विशद-विस-किसलय-वलया।
जीवति परमिह तव रति-कलया
नाथ हरे! सीदति..... ॥3॥[1]

अनुवाद- विमल-धवल मृणाल एवं नव-पल्लव विरचित वलय-समूह को पहने वह केवल आपके साथ रमण करने की इच्छा से जी रही हैं।

पद्यानुवाद
किसलय कोमल वलय धार कर
रति-चिन्ता-रस साने।

बालबोधिनी- मृणाल के सूत्रों से और उसकी कोपलों से श्रीराधा ने स्वयं को वलयित कर लिया है, जिससे कामजन्य संताप से मुक्ति मिले। अतिशय क्षीण और कृशा होने पर भी आपके साथ रमण करने की इच्छा से आनन्दित होकर उन्होंने अभी तक प्राणों को धारण कर रखा है। तुम्हारे प्रेम की विधि अभी भी उनके प्राणों में बसी है। तुम्हारे प्रेम का एक पूरा तन्त्र प्राण की तन्त्री में बज रहा है। रमण का आवेश ही उनके प्राण धारण का कारण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- कथं तर्हि जीवतीत्याह विहित-विशदविस-किशलय-वलया (विहितं कृतं विशदविसानां शुभ्रमृणालानां किसलयानाञ्च वलयं यया तादृशी) सती परं (केवलं) तव रतिकलया (रमणावेशेन) इह जीवति ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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