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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्
राधा-मुग्ध-मुखारविन्द-मधुपस्त्रैलोक्य-मौलि-स्थली अनुवाद- जो श्रीराधा जी के मनोहर मुखारविन्द का मधुपान करने में मधुपस्वरूप हैं, जो त्रिभुवन के मुकुटमणि-सदृश वृन्दावनधाम के इन्द्रनीलमणिमय विभूषण सदृश हैं, जो अनायास प्रदोष की भाँति ब्रजसुन्दरियों का सन्तोष विधान करने में समर्थ हैं, जो पृथ्वी के भाररूपी दैत्यदानवों का संहार करते हैं ऐसे कंस-विध्वंस के धूमकेतु स्वरूप देवकीनन्दन श्रीकृष्ण आप सबकी रक्षा करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथ विरहं वर्णयन् व्याकुल: कवि: तयोर्मिथो-मिलनकाल-स्मरणजातहर्ष: आशिषा सर्गमुपसंहरति राधामुग्ध-मुखारविन्दमधुप: (राधाया: मुग्धं सुन्दरं यत् मुखारविन्दं वदनकमलं तस्य मधुप: भ्रमर:) (त्रैलोक्य-मौलि-स्थली-नेपथ्योचित-नीलरत्नं (त्रैलोक्यस्य त्रिभुवनस्य या मौलिस्थली शिरोभाग: श्रीवृन्दावन-भूमिरित्यर्थ: तस्या नेपथ्योचितम् अलंकारभूतं नीलरत्नम्) अवनीभारावतारक्षम: (अवन्या: क्षिते: भारस्य अवतारे दुर्वृत्तदमनादिना हरणे क्षम: समर्थ:), [तथा] व्रज-सुन्दरी-जन-मनस्तोष-प्रदोष: (व्रजसुन्दरीजनानां मनसां तोषाय प्रदोष: रजनीमुखस्वरूप:) तथा कंस-ध्वंसन-धूमकेतु: (कंसस्य ध्वंसने धूमकेतु:) देवकीनन्दन: त्वां चिरम् अवतु (रक्षतु) अतएव श्रीराधाया गमनकांक्षया सहित: पुण्डरीको यत्र इति सर्गो यं पञ्चम: ॥5॥
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