गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 233

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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श्रीजयदेवे कृत-हरि-सेवे भणति परमरमणीयम्।
प्रमुदित-हृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृत-कमनीयम्
धीर समीरे यमुना तीरे... ॥8॥[1]

अनुवाद- हे साधुजन! परम मनोहर काव्य-रचयिता, श्रीहरि-सेवी जयदेवकृत इस गीति से प्रमुदित हृदय, अतिशय सदय, परम मधुर, शोभन-चरित तथा कमनीय गुणों से युक्त श्रीकृष्ण को प्रमुदित हृदय से नमस्कार करो।

पद्यानुवाद
श्रीजयदेव कथित यह वाणी, हरि-राधा-रस सानी।
मुदित हृदय उसका करती है, जिसने मवनि पहचानी॥

बालबोधिनी- इस अष्टपदी के अन्त में कवि जयदेव कहते हैं कि हे भागवतजन! श्रीकृष्ण की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले उन्होंने सुमधुर इस कथा-काव्य की रचना की है। अत: श्रीकृष्ण उन पर सदैव प्रसन्न रहते हैं। अपनी-अपनी स्फूर्त्ति के कारण जो सबकी कामना के विषय बने हुए हैं, ऐसे दया के सिन्धु, परम रमणीय श्रीकृष्ण को आप सभी प्रमुदित हृदय से नमस्कार करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- कृत-हरि-सेवे (कृत्वा हरिसेवा येन तस्मिन्) श्रीजयदेव भणति [सति] [भो: साधव:] प्रमुदित:-हृदयं (प्रमुदितं हृदयं यथा तथा अथवा सदानन्द-चेतसं हरिम्) अतिसदयं (परमकृपालुं) परमरमणीयं (एकान्तमनोहरं) सुकृतकमनीयं (सुकृतेन शोभन-चरितेन कमनीयं सर्वैर्विशेषेण वाञ्छनीयमित्यर्थ:) हरिं [यूयं] नमत ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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