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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्
श्रीजयदेवे कृत-हरि-सेवे भणति परमरमणीयम्। अनुवाद- हे साधुजन! परम मनोहर काव्य-रचयिता, श्रीहरि-सेवी जयदेवकृत इस गीति से प्रमुदित हृदय, अतिशय सदय, परम मधुर, शोभन-चरित तथा कमनीय गुणों से युक्त श्रीकृष्ण को प्रमुदित हृदय से नमस्कार करो। पद्यानुवाद बालबोधिनी- इस अष्टपदी के अन्त में कवि जयदेव कहते हैं कि हे भागवतजन! श्रीकृष्ण की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले उन्होंने सुमधुर इस कथा-काव्य की रचना की है। अत: श्रीकृष्ण उन पर सदैव प्रसन्न रहते हैं। अपनी-अपनी स्फूर्त्ति के कारण जो सबकी कामना के विषय बने हुए हैं, ऐसे दया के सिन्धु, परम रमणीय श्रीकृष्ण को आप सभी प्रमुदित हृदय से नमस्कार करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- कृत-हरि-सेवे (कृत्वा हरिसेवा येन तस्मिन्) श्रीजयदेव भणति [सति] [भो: साधव:] प्रमुदित:-हृदयं (प्रमुदितं हृदयं यथा तथा अथवा सदानन्द-चेतसं हरिम्) अतिसदयं (परमकृपालुं) परमरमणीयं (एकान्तमनोहरं) सुकृतकमनीयं (सुकृतेन शोभन-चरितेन कमनीयं सर्वैर्विशेषेण वाञ्छनीयमित्यर्थ:) हरिं [यूयं] नमत ॥8॥
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