गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 231

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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विगलित-वसनं परिहृत-रसनं घटय जघनमपिधानं।
किशलय-शयने पप्रज-नयने निधिमिव हर्ष-निधानं
धीर समीरे यमुना तीरे... 6॥[1]

अनुवाद- हे इन्दीवरनयन राधे! नवीन किसलय की शय्या पर तुम आवरणरहित होकर, करधनी रहित होकर प्रियतम के प्रीतिविधान स्वरूप अपने निधि-रत्न जंघाओं को स्थापित कर दो।

पद्यानुवाद
पंकजनयने! दल-शय्या पर अपने जीवन-धनसे।
बांह्य आवरण त्याग न मिलती कैसे प्रमुदित मनसे॥

बालबोधिनी- इसके पहले के पद्य में सखी ने श्रीराधा में विपरीत रति की उत्कण्ठा जाग्रत की। अब श्रीकृष्ण के द्वारा की जाने वाली रतिक्रीड़ा के प्रति श्रीराधा की उत्कण्ठा उत्पन्न करती हुई सखी आगे कह रही है हे पंकज के समान मनोहर नेत्रों वाली राधे! कोटिकन्दर्प अभिराम श्रीकृष्ण की सुन्दरता को देखकर वस्त्र तो तुम्हारी जाँघों से स्वयं ही खिसक जायेगा, मेखला में संलग्न क्षुद्र घंटिकाएँ भी परिहृत हो जाएँगी, तुम आनन्द के निधान श्रीकृष्ण के सुख का विधान करने वाली इस निधिरत्न जंघा-भाग को श्रीकृष्ण द्वारा रचित नवपल्लवों की शय्या पर रखना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अतो गत्वा] हे पंकज-नयने (सरोजाक्षि) किशलय-शयने (वालपल्लवशय्यायां) विगलित-वसनं (श्रीकृष्णेन हेतुना विगलितं वसनं यस्मात्र तादृशं) परिहृत-वसनं (तेनैव परिहृता दूरीकृता रसना काञ्ची यस्मात् तादृशं) [अतएव] अपिधानं (नास्ति पिधानम्र आच्छादनं यस्य तत्र आवरणरहितमित्यर्थ:) जघनं (कटिपुरोभागं) [तस्यैव] निधिमिव (रत्नमिव) हर्षनिधानं (आनन्दनिकेतनं) घटय (कुरु) [गतावरणस्य निधेर्दर्शने हर्षो जायत एवेत्यर्थ:] ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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