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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
श्री राधिका सखी से कहती हैं, ज्योत्स्नामयी रात्रि में जनसमूह के मध्य होकर श्रीकृष्ण के साथ में कैसे जाऊँ? तदुत्तर कवि ने अनुकूल समय का चयन किया है। तदनुसार हे राधे! सम्प्रति आकाश बादलों से भरे हुए होने के कारण मनोज्ञ हो गया है, जिससे चन्द्रमा की किरणें अदृश्य हो रही हैं, श्रीकृष्ण की प्रिया-मिलन की इच्छा को जानकर घटाओं ने मानो चन्द्रमा को समाच्छादित कर लिया है। अथवा जिस प्रकार श्याम वर्ण के मेघों ने गौरवर्ण चन्द्रमा का आलि न कर रखा है, उसी उद्दीपन से विभावित हो श्रीश्याम गौरा श्रीराधा से मिलने की तीव्र इच्छा से उत्कण्ठित हो रहे हैं। यह समय भी अनुकूल है। रात्री की बेला है, वनभूमि तमाल वृक्षों से समाच्छादित होकर श्यामवर्ण हो गई है, चहुँओर निविड़ अन्धकार व्याप्त है, कोई तुम्हें देख नहीं सकता। डरने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार महाकवि ने सूचित किया है कि इस काव्यका अंगी-रस रसराज श्रृंगार है। अन्धकारमय राति काल, मेघाच्छादित अम्बर तथा तमाल वृक्षों से सुशोभित शस्य श्यामला वनभूमि ये उद्दीपन विभाव हैं श्रीमती राधा आलम्बन विभाव हैं। रति स्थायी भाव है। हर्ष, आवेग, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव हैं। भीरुत्व अनुभाव है। श्रृंगार-रस में नायिका का प्राधान्य होने के कारण श्रीराधा जी का यहाँ पहले निरूपण हुआ है। इस लीला के अवसर पर सखी इस प्रकार कहेगी चारों ओर देख सुनकर चलना उचित है इत्यादि। इन वचनों से 'राधे! जब तक चन्द्र-ज्योत्स्ना दृश्यमाना नहीं होती, तब तक वनमें प्रविष्ट हो जाओ।' श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेव जी ने 10-30 में कहा है 'अन्धकारमय स्थान को देखकर।' प्रस्तुत श्लोक में जयति शब्द के द्वारा नमस्कार का बोध होता है, ऐसे काव्य-प्रकाश में भी नमस्कार शब्द से सूचित किया है। यहाँ श्रीराधामाधव की रह:केलि का जो प्रतिपादन हुआ है, उससे वस्तु निर्देश भी लक्षित होता है तथा यह आशीर्वाद स्वरूप भी है। इसलिए इसे महाकाव्य कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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