गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 228

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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मुखरमधीरं त्यज मञ्जीरं रिपुमिव केलिषु लोलम्।
चल सखि! कुञ्जं सतिमिर-पुञ्जं शीलय नील-निचोलम्
धीर समीरे यमुना तीरे... ॥4॥ [1]

अनुवाद- सखि! चलो, कुंज की ओर चलें। चलने में मुखरित होने वाले, विलास केलि में अति चंचल होने वाले इन नूपुरों को तुम शत्रु के समान त्याग दो, तिमिर युक्त नीलवसन को धारण कर लो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हे सखि, अधीरं (चञ्चलं) अतएव मुखरं (सशब्दं) मञ्जीरं (नूपुरं) केलिषु (क्रीड़ासु) लोलं (अतिचपलं); [अत: अभीष्टविरोधित्वात्] रिपुमिव (शत्रुवत्र) त्यज; सतिमिरपुञ्जं (तमसावृतं) कुञ्जं चल; नीलनिचोलं (तामस्यभिसारिकोचितं नीलवसनं) शीलय (परिधेहि) ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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