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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्
मुखरमधीरं त्यज मञ्जीरं रिपुमिव केलिषु लोलम्। अनुवाद- सखि! चलो, कुंज की ओर चलें। चलने में मुखरित होने वाले, विलास केलि में अति चंचल होने वाले इन नूपुरों को तुम शत्रु के समान त्याग दो, तिमिर युक्त नीलवसन को धारण कर लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- हे सखि, अधीरं (चञ्चलं) अतएव मुखरं (सशब्दं) मञ्जीरं (नूपुरं) केलिषु (क्रीड़ासु) लोलं (अतिचपलं); [अत: अभीष्टविरोधित्वात्] रिपुमिव (शत्रुवत्र) त्यज; सतिमिरपुञ्जं (तमसावृतं) कुञ्जं चल; नीलनिचोलं (तामस्यभिसारिकोचितं नीलवसनं) शीलय (परिधेहि) ॥4॥
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