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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्
पतति पतत्रे विचलति पत्रे शंकित-भवदुपयानम्। अनुवाद- राधे! श्रीकृष्ण अति उल्लास और अतिशय स्फूर्त्ति से शय्या का निर्माण कर रहे हैं और जैसे ही किसी पक्षी के वृक्ष पर बैठने से पत्ते चंचल होकर थोड़ा-सा भी शब्द करने लगते हैं, तो वे तुम्हारे आगमन के मार्ग का चकित दृष्टि से अवलोकन करने लगते हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी श्रीराधा से कह रही है कि वृक्ष के पत्ते गिरने से या वायु के संचालन से अथवा पक्षियों के इधर-उधर घूमने-फिरने से सामान्य 'मर्मर' शब्द होते ही वे मन में शंका करते हैं- कहीं श्रीराधा तो नहीं आ रही हैं। अत: बड़े ही उल्लास से वे जल्दी ही शय्या-निर्माण करने में लग जाते हैं और चकित दृष्टि से तुम्हारे आगमन-पथ की ओर देखने लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- पतत्रे (विहंगमे) [वृक्षात्र भूमौ] पतति (अवतरति सति) [तथा] पत्रे विचलति [सति] शंकित-भवदुपयानं (शंकितम् अनुमितं भवत्या: उपयानं आगमनं यस्मिन् तद्र यथा तथा) शयनं (शय्यां) रचयति (निर्मिमीते) [तथा] सचकित-नयनं [यथा स्यात् तथा] तव पन्थानं (आगमनवर्त्म) पश्यति ॥3॥
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