गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 227

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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पतति पतत्रे विचलति पत्रे शंकित-भवदुपयानम्।
रचयति शयनं सचकित-नयनं पश्यति तव पन्थानम्॥
धीर समीरे यमुना तीरे... ॥3॥[1]

अनुवाद- राधे! श्रीकृष्ण अति उल्लास और अतिशय स्फूर्त्ति से शय्या का निर्माण कर रहे हैं और जैसे ही किसी पक्षी के वृक्ष पर बैठने से पत्ते चंचल होकर थोड़ा-सा भी शब्द करने लगते हैं, तो वे तुम्हारे आगमन के मार्ग का चकित दृष्टि से अवलोकन करने लगते हैं।

पद्यानुवाद
पक्षीके उड़नेसे तरुके पने जब हिल जाते
आती हो यह जान हृदयमें शंकासे खिल जाते।
शीघ्र वहीं पर किसलय-दलकी शय्या ललित रचाते
और पंथ पर चौंक-चौंक कर आँखें सजल बिछाते॥

बालबोधिनी- सखी श्रीराधा से कह रही है कि वृक्ष के पत्ते गिरने से या वायु के संचालन से अथवा पक्षियों के इधर-उधर घूमने-फिरने से सामान्य 'मर्मर' शब्द होते ही वे मन में शंका करते हैं- कहीं श्रीराधा तो नहीं आ रही हैं। अत: बड़े ही उल्लास से वे जल्दी ही शय्या-निर्माण करने में लग जाते हैं और चकित दृष्टि से तुम्हारे आगमन-पथ की ओर देखने लगते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- पतत्रे (विहंगमे) [वृक्षात्र भूमौ] पतति (अवतरति सति) [तथा] पत्रे विचलति [सति] शंकित-भवदुपयानं (शंकितम् अनुमितं भवत्या: उपयानं आगमनं यस्मिन् तद्र यथा तथा) शयनं (शय्यां) रचयति (निर्मिमीते) [तथा] सचकित-नयनं [यथा स्यात् तथा] तव पन्थानं (आगमनवर्त्म) पश्यति ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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