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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ
10. गीतम्
वसति विपिन-विताने त्यजति ललित-धाम। अनुवाद- वे अपने मनोहर शयन-मन्दिर का परित्याग करके अरण्य में निवास करते हैं और भूमि-शय्या पर लुण्ठित होते हुए बार-बार राधे! राधे! तुम्हारे ही नाम का उच्चारण करते हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी कह रही है राधे! तुम्हारे वियोग में श्रीकृष्ण ने अपने मनोहर धाम में रहना छोड़ दिया है। उन्हें जंगलों के वितान में रहना ही अच्छा लगने लगा है। शय्या पर न सोकर वे तुम्हारे विरह की पीड़ा से भूमि पर ही सोते हुए लोट-लोट कर निशा-काल को व्यतीत करते हैं, बस तुम्हारा ही नाम करते हैं राधे, हा राधे! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- विपिनविताने (वनगहने) वसति; ललितधाम (रुचिरमपि गृहं) त्यजति [विरहवैकल्यात् एकत्र स्थित्यभावाद् वितान- शब्दोपादानम्]; धरणिशयने (भूशय्यायां) लुठति; तव नाम बहु (बारं बारं) विलपति (जपति; तव नामधेयादन्यत् तस्यमुखात् न नि:सरतीत्यर्थ:) ॥4॥
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