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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
वृष्टि-व्याकुलगोकुलावन-रसादुद्रधृत्य गोवर्धनं अनुवाद- जिन्होंने वारि-वर्षण से व्याकुल गोकुलवासियों की रक्षा के लिए इन्द्र से प्रतिस्पर्द्धा करते हुए गिरि गोवर्धन को ऊपर उठाकर धारण किया था, जो गोप युवतियों के द्वारा दीर्घकाल पर्यन्त अतिशय रूप से चुम्बित हुए थे, जिन पर गोपबधुओं के अधर-स्थित कुंकुम तथा ललाट स्थित सिन्दूर अंकित हुआ था, वे कंस विध्वंसकारी, गोपतनुधारी श्रीकृष्ण की भुजाएँ सबका मंगल विधान करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [इदानीमाशिषा सर्गं समापयति महाकवि:]- गोपतनो:(गोपाल-रूपस्य) कंसद्विष: (कृष्णस्य) वृष्टिव्याकुलगोकुलावन-रसात् (वृष्टिभि: व्याकुलं यत् गोकुलं तस्य अवनं रक्षणं तस्य रस: अनुराग: तस्मात्) गोवर्धनम् (तन्नामानं गिरिम्। उद्धृत्य (उत्तोल्य) विभ्रत् (दधान:) अधिकानन्दात् (वैदग्ध्य-सौन्दर्यादिकमुद्वीक्ष्य हर्षातिशयेनेत्यर्थ:) वल्लव-वल्लभाभि: (गोपसुन्दरीभि:) चिरं चुम्बित: (दत्तचुम्बन:) [तथा] दर्पेण (अहंकारेणैव इन्द्रस्य विजिगीषया) तदर्पिताधरतटीसिन्दुर-मुद्रांकित: (ताभिर्गोपागंभि:) अर्पिता दत्ता या अधरतट्य: अधरप्रदेशा: तासां सिन्दूर-मुद्रया सिन्दूर-चिह्नेन अंकित: युक्त:) बाहु: श्रेयांसि (मंगलानि) तनोतु (विस्तारयतु) [अतएव श्रीराधावैकल्य-श्रवणेन स्निग्धश्चेष्टारहितो मधुसूदनो यत्र स-इत्ययं सर्गश्चतुर्थ:] ॥5॥
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सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |