गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 205

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

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पद्यानुवाद
कभी पुलकती, कभी विलपती और विसुध है होती
'सी सी' करके कभी सिहरती कभी बिहँसती, रोती।
गिरती उठती, चलती, फिरती, जगती-सी सो जाती
तीव्र ज्वराकुल-सी लगती है, पीड़ामें खो जाती॥

बालबोधिनी- श्रीराधा को महाज्वर की पीड़ा है कामज्वर अब सन्निपात अवस्था में पहुँच गया है। वह श्रीराधा न केवल बाह्यवृत्ति से आपमें अनुरक्त हैं, अपितु सात्त्विक भाव से भी वह आपमें ही जी रही हैं। सात्त्विक भाव से प्रख्यात वह अनेकों चेष्टाएँ कर रही हैं, जिनके नाम हैं-

स्तम्भ: स्वेदोऽथ रोमाञ्च: स्वरभंगोऽथ वेपथु:।
वैवर्ण्यमश्रुप्रलयावित्यष्टौ सात्त्विका मता:॥

रोमाञ्चति इस पद के द्वारा श्रीराधा के रोमाञ्च नाम के सात्त्विक भाव का वर्णन किया है। 'रोमाञ्च विद्यते यस्य स रोमाञ्च:। रोमाञ्चित इत्यर्थ:। तद्वदाचरति रोमाञ्चति।' जिसको रोमाञ्च हो गया है, उसको रोमाञ्चित कहते हैं और रोमाञ्चित के समान आचरण करने की क्रिया को 'रोमाञ्चति' कहा जाता है।

वैवर्ण्य- आपकी चिन्ता और स्मृति बनी रहने से वह सीत्कार करती हैं। अश्रु एवं वेपथु आपके (श्रीकृष्ण के) गुणों का स्मरण करके वह रोने लगती है, श्रीकृष्ण के वियोगजन्य दु:ख को कैसे सहन कर पाऊँगी, यह सोचकर काँपने लगती हैं।

स्वेद-ग्लानियुक्त होकर पसीने-पसीने हो जाती हैं।

स्तम्भ-नित्य निरन्तर आपका ध्यान करती हैं। आँखें मूँद लेती हैं, मानो सारे इन्द्रिय व्यापार स्थगित हो गये हों।

वेपथु का द्वितीय उदाहरण 'उद्रभ्रमति' क्रीड़ादि स्थलों में आपको प्राप्त करने की इच्छा से भ्रमण करती हैं।

स्वरभंग- 'प्रमीलति' का अर्थ है आपके आलिंगन आदि का ध्यान करके अपनी आँखों को बन्द कर लेती हैं। वह कुछ बोल नहीं पातीं। स्तम्भ का द्वितीय उदाहरण 'पतति' पद का अभिप्राय यह है कि वह, चलती हुईं अत्यन्त क्षीण तथा दुर्बल शरीर के कारण गिर पड़ती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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