विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा को महाज्वर की पीड़ा है कामज्वर अब सन्निपात अवस्था में पहुँच गया है। वह श्रीराधा न केवल बाह्यवृत्ति से आपमें अनुरक्त हैं, अपितु सात्त्विक भाव से भी वह आपमें ही जी रही हैं। सात्त्विक भाव से प्रख्यात वह अनेकों चेष्टाएँ कर रही हैं, जिनके नाम हैं- स्तम्भ: स्वेदोऽथ रोमाञ्च: स्वरभंगोऽथ वेपथु:। रोमाञ्चति इस पद के द्वारा श्रीराधा के रोमाञ्च नाम के सात्त्विक भाव का वर्णन किया है। 'रोमाञ्च विद्यते यस्य स रोमाञ्च:। रोमाञ्चित इत्यर्थ:। तद्वदाचरति रोमाञ्चति।' जिसको रोमाञ्च हो गया है, उसको रोमाञ्चित कहते हैं और रोमाञ्चित के समान आचरण करने की क्रिया को 'रोमाञ्चति' कहा जाता है। वैवर्ण्य- आपकी चिन्ता और स्मृति बनी रहने से वह सीत्कार करती हैं। अश्रु एवं वेपथु आपके (श्रीकृष्ण के) गुणों का स्मरण करके वह रोने लगती है, श्रीकृष्ण के वियोगजन्य दु:ख को कैसे सहन कर पाऊँगी, यह सोचकर काँपने लगती हैं। स्वेद-ग्लानियुक्त होकर पसीने-पसीने हो जाती हैं। स्तम्भ-नित्य निरन्तर आपका ध्यान करती हैं। आँखें मूँद लेती हैं, मानो सारे इन्द्रिय व्यापार स्थगित हो गये हों। वेपथु का द्वितीय उदाहरण 'उद्रभ्रमति' क्रीड़ादि स्थलों में आपको प्राप्त करने की इच्छा से भ्रमण करती हैं। स्वरभंग- 'प्रमीलति' का अर्थ है आपके आलिंगन आदि का ध्यान करके अपनी आँखों को बन्द कर लेती हैं। वह कुछ बोल नहीं पातीं। स्तम्भ का द्वितीय उदाहरण 'पतति' पद का अभिप्राय यह है कि वह, चलती हुईं अत्यन्त क्षीण तथा दुर्बल शरीर के कारण गिर पड़ती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |