गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 202

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

Prev.png

हरिरिति हरिरिति जपति सकामम्।
विरह-विहित-मरणेव निकामम्
राधिका विरहे.... ॥7॥[1]

अनुवाद- विरह के कारण उनका प्राणत्याग निश्चित-सा हो गया है, श्रीराधा निरन्तर 'श्रीहरि, श्रीहरि' इस नाम का आपकी प्राप्ति की कामना से जप करती रहती है।

पद्यानुवाद
अहर्निश हरि-नाम जपती
मृत्यु क्षण क्षण झलक टलती।

बालबोधिनी- श्रीराधा का विरहानल में दग्ध होने के कारण यह निश्चित-सा ही हो गया है कि अब उनके प्राण बचेंगे नहीं। संसार से निराश तथा मुमुर्षु जन जैसे श्रीहरि का अहर्निश नाम जपते हैं, उसी प्रकार श्रीराधा भी आपकी प्राप्ति की अभिलाषा से सर्वदा श्रीहरि का नाम जपती रहती हैं। प्रणत-क्लेश-नाशन होने से श्रीकृष्ण हरि कहे जाते हैं। हरि-हरि जप करने से इस जन्म में न सही, दूसरे जन्म में वे अवश्य ही प्रियतम के रूप में प्राप्त होंगे इसी कामना को लेकर जप कर रही हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- विरहविहित-मरणा (त्वद्विरहेण विहितम् अवधारितं मरणं यस्या: सा) इव [सती] निकामं (मरणे या मति: सा एव जीवस्य गतिरिति मत्वा अनवरतं) सकामं (साभिलाषं) हरिरिति हरिरिति जपति ॥7॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः