गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 197

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

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सरस-मसृणमपि मलयज-पंकम्
पश्यति विषमिव वपुषि सशंकम्
राधिका विरहे.... ॥2॥[1]

अनुवाद- केशव! विरहवियुक्ता वह श्रीराधा अपने शरीर में संलग्न सरस, कोमल एवं सुचिक्कण चन्दन-पंक को सशंकित होकर विष की भाँति देख रही हैं।

पद्यानुवाद
मलय विषका सार बनता

बालबोधिनी- मलय चन्दन का लेप अत्यन्त चिकना और अतिशय सरस होता है, परन्तु वह समझती हैं कि विष से उसका लेपन किया गया है। श्रीकृष्ण की विरहव्यथा की व्याकुलता से सम्प्रति चन्दन-विलेपन श्रीराधा को सुखदायी न होकर दु:खकारी हो रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [न केवलं हार-वहनासमर्था अपि तु] सरसं (आर्द्रं) मसृणम् (सुघृष्टम्) अपि मलयज-पंक (चन्दन-विलेपनं) वपुषि (शरीरे) विषमिव (गरलं यथा) सशंक [यथा स्यात् तथा] पश्यति ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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