गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 188

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्

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कुसुम-विशिख-शर-तल्पमनल्प-विलास-कला-कमनीयम्।
व्रतमिव तव परिरम्भ-सुखाय करोति कुसुम-शयनीयम्॥
सा विरहे तव दीना... ॥3॥[1]

अनुवाद- हे माधव! विविध विलासों से रमणीय कुसुम-शय्या श्रीराधा के द्वारा रचायी जा रही है, जो कामदेव के बाणों की शय्या के समान प्रतीत हो रही है। आपके गाढ़ आलिंगन की प्राप्ति की आशा से वह कठोर-शरशय्याव्रत के अनुष्ठान का पालन कर रही है।

बालबोधिनी हे श्रीकृष्ण! महान केलि-कला-विलासरूप पुष्प-शय्या की रचना आपके विरह में विदग्ध होकर श्रीराधा करती तो हैं, पर वह सेज काम-शरों की सेज सदृश ही है। उत्प्रेक्षा करते हुए सखी कहती है जैसे कोई व्यक्ति किसी बड़े सुख की प्राप्ति के लिए कोई व्रत करता है, उसी प्रकार श्रीराधा भी दुष्प्राप्य आपके आलिंगन-सुख की प्राप्ति के लिए दुष्कर शरशय्या-व्रत की साधना कर रही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अपि च] अनल्प-विलासकला-कमनीयं (अनल्पाभि: बहुभि: विलास-कलाभि: विलासभावै: कमनीयं मनोज्ञ्ं)कुसुम-शयनीयं (पुष्पशय्यां) [अपि] [तव विरहे] कुसुमविशिख- शरतल्पम् (कुसुम-विशिखस्य कामस्य शरतल्पं शरशय्याभूतं) तव परिरम्भसुखाय (गाढ़ालि नसुख-लाभाय) व्रतमिव करोति [सुदुर्लभं तव परिरम्भणसुखम्, अतस्तल्पाभाय व्रतचर्यामिव करोतीत्यर्थ:]॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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