गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 182

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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बालबोधिनी- तृतीय सर्ग के अन्तिम श्लोक में कवि ने श्रीराधा के वचनों को प्रमाणित किया है। गोपांगनाओं के मध्य में अवस्थित श्रीकृष्ण को श्रीराधा-दर्शन से भावानुभूति हुई है, उसी को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। कवि ने पाठकों एवं श्रोताओं को आशीर्वाद प्रदान किया है कि मुग्ध-मधुसूदन आपका कल्याण विधान करें।

मधुसूदन-जो श्रीराधा के मुखकमल की ईषत्र चञ्चलता एवं संमुग्धता का दर्शनकर अतिशय उल्लसित हुए हैं, सम्पूर्ण इतर कामनाओं का परित्याग कर श्रीराधा में एकनिष्ठ हुए हैं उनके कटाक्षपात की उर्मियाँ स्नेहातिशयता के कारण श्रीराधा के सुललित एवं मधुमय मुखचन्द्र पर स्थिर हो गयी हैं।

संमुग्मा पद से श्रीराधा के मुख की मनोज्ञ अतिशयता बतायी गयी है।

'मधुर' पद से श्रीराधा के मुख को अमृत से भी मधुर बताया गया है। मोहकता एवं माधुर्य के कारण श्रीराधा के मुख को श्रीकृष्ण बड़े चाव से देखते हैं।

'सुधासार' से भी श्रीराधा के मुख का पीयूषत्व अभिव्यक्त हो रहा है। श्रीकृष्ण को आट्टादित करने के कारण श्रीराधा में विधुत्व का आरोप किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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