गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 176

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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पद्यानुवाद
त्रिभुवन विजयी अस्त्रों को, अर्पित राधाको ऐसे-
कर समा गया स्मर उसमें, कोई हारा हो जैसे।
भौंहोंमें 'मानुष' बसा है, शर-पाँत दीठमें बैठी!
कानोंकी पाली दिखती, मानो प्रत्यंचा ऐंठी॥

बालबोधिनी- श्रीकृष्ण श्रीराधा में कामबाण-समूह का आरोपण करते हुए कहते हैं कि संसार को जीतने वाले अस्त्रों को कामदेव श्रीराधा में ही निक्षिप्त कर दिया है क्या? 'तत्र' शब्द से यहाँ 'पूर्वानुभूति' अभिव्यक्त हुई है। 'तस्याम्' पद से सूचित किया है कि जिस श्रीराधा के वियोग से मैं व्याकुल हूँ, जो मेरी मन:कान्ता है, उसी में श्रीकृष्ण ने जगद्विजयी अस्त्रों को निक्षिप्त कर दिया है।

श्रीराधा के द्वितीय वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि श्रीराधा अनंगजयी जंगम देवता है। कामदेव तो जगद्विजय करने वाले चलते-फिरते देवता हैं। श्रीराधा से ही अस्त्रों को उपलब्ध करके कामदेव ने जगत जीता और पुन: उद्देश्य की पूर्त्ति हो जाने पर उसी देवता को उन अस्त्रों को समर्पित कर दिया है। कामदेव का जगद्विजयी अस्त्र है भ्रूपल्लव-धनु:। श्रीराधा की भौंहें नीली एवं स्निग्ध हैं इसलिए उनमें भ्रूपल्लव का आरोप है और टेढ़ी होने से उनमें धनुष का आरोप है। श्रीराधा के 'अपांग़-तरंग' ही कामदेव के अपांग वीक्षणरूपी कटाक्षवेधक बाण हैं। बाण जिस प्रकार अभिलक्ष्य का भेदन कर डालते हैं, उसी प्रकार श्रीराधा ने भी मेरे मन को भेद डाला है। 'अस्त्र' शब्द से अस्त्रविद्या साधन के उपकरण कहे जाते हैं।

इस प्रकार श्रीकृष्ण ने तत् तत् आविष्कार समर्थ अवयवों में कामदेव के तत्र तत्र अस्त्रविद्या साधनोपकरणों की उत्प्रेक्षा की है।

इस श्लोक में 'वसन्त तिलका' छन्द है, उत्प्रेक्षा एवं रूपक अलंकारों की संसृष्टि है ॥11॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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