गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 171

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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पद्यानुवाद
उर पर नाग नहीं है यह तो, श्रेणी कुवलय दलकी।
विषकी आभा नहीं कण्ठमें, माला नील कमल की॥
भस्म नहीं है शीतल करने, विरह तापकी ज्वाला-
लगा रहा मलयज-रज तनमें, मैं विरही मतवाला॥

बालबोधिनी- प्रेयसी श्रीराधा के विरह में कामदेव के बाणों से श्रीकृष्ण का अन्त:करण जर्जरित हो गया है। श्रीकृष्ण को ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे कामदेव ने उसे चन्द्रमौली समझ लिया है, तभी तो अपने अभेद्य बाणों का प्रहार उन पर कर रहा है, विह्नल होकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अनंग! देखो, महादेव सर्वदा अपनी प्रियतमा पार्वती के साथ अर्द्ध में मिलित होकर कैसे सुख से विराजमान हैं, परन्तु प्राणाधिका श्रीराधिका के साथ मेरा मिलन तो बहुत दूर की बात है, वह कहाँ है, यह भी मुझे पता नहीं है। मन्मथ-सन्ताप से पीड़ित श्रीकृष्ण को श्रीराधा की स्फूर्त्ति हो रही है। अत: वे साक्षात् रूप में कह रहे हैं- हे अनंग ! तुम क्यों व्यर्थ ही क्रोध करके मुझे शंकर समझकर बार-बार मेरे ऊपर आघात करने के लिए दौड़ रहे हो। तुम्हें जो यह साँप की तरह कमलनाल के सूतों की माला दिखती है, यह तो मृणाल-दण्ड का हार है, मेरे गले में जो नील-कमलों की पंक्ति है, उसे तुम शंकर के गले में विष की नीलकान्ति मान रहे हो, मेरे शरीर पर जो यह देख रहे हो वह भस्म नहीं है, वह तो प्रियतमा के वियोगजनित सन्ताप को दूर करने के लिए मलयज चन्दन का लेप लगाया है, जो सूखकर भस्म में परिणत हो गया है। मैं तो प्रिया के बिना वैसे ही निष्प्राण हो रहा हूँ क्यों मेरे ऊपर प्रहार कर रहे हो?

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द, अपह्नुति अलंकार तथा विप्रलम्भ-श्रृंगार चित्रित है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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