गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 167

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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दृश्यसे पुरतो गतागतमेव मे विदधासि।
किं पुरेव ससंभ्रमं-परिरम्भणं न ददासि-
हरि हरि हतादरतया... ॥6॥[1]

अनुवाद- हाय! तुम मेरे सामने आती जाती सी दिखायी दे रही हो, पर पहले की भाँति अतिशय प्रेमोल्लास के कारण सम्भ्रम के साथ तुम सहसा ही मेरा आलिंगन क्यों नहीं करती हो?

पद्यानुवाद
मेरे सम्मुख दीख रही तू, पल पल आती जाती।
क्यों न सजनि! फिर सहज भावसे भुज युगमें बँध जाती॥

बालबोधिनी- हे प्रिये कृशांगि! अपने सामने मैं तुमको यातायात करता हुआ देख रहा हूँ, बस केवल तुम आती जाती ही हो, पर क्या कारण है कि आज तुम मुझे आलिंगन पाश में नहीं बाँध रही हो? तुम इतनी निष्ठुर क्यों बन गयी हो? सच है कि विरही पुरुष की उद्विग्नावस्था जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है, तब उस समय उसकी भावना चरम अवस्था को प्राप्त हो जाती है। उस समय उसे लगता है कि उसका प्रेमी वहीं है। श्रीराधा के वियोग के कारण श्रीकृष्ण इतने विकल हो गये हैं कि उनकी भावना साक्षात्रकृतावस्था तक पहुँच गयी है, सभी ओर श्रीराधा ही श्रीराधा दिखायी दे रही हैं। वही, वही, बस वही श्रीराधा सम्पूर्ण संसार में दिखायी दे रही है ॥6॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [प्रिये,] मे (मम) पुरत: (अग्रत:) एव गतागतं (यातायातं) विदधासि (करोषि); [पुरत:] दृश्यसे [तथापि] किं (कथं) पुरा इव (पूर्ववत्) ससम्भ्रमं (सावेगं यथा स्यात् तथा) परिरम्भणं (आलिंगनं) न ददासि [पुर: स्थिताया: प्रियतमाया ईदृशी निष्ठुरता न युक्ता इत्यभिप्राय:] ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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