गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 162

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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पद्यानुवाद
क्या न करेगी, क्या बोलेगी विरह-विदग्धा वनमें।
राधा बिन है शेष मुझे क्या जगती में, जीवन में॥

बालबोधिनी- विरही श्रीकृष्ण की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं कि श्रीराधा के वियोग में जो मुझ पर बीत रही है, वही उस पर भी बीत रही होगी। कितनी आकुलता व्याकुलता अनुभव कर रही होगी? इस वियोगजनित दु:खानुभव का कारण मेरा अपराध ही है। मेरे ही कारण उसे इतना कष्ट हो रहा है। जब उससे मिलूँगा तो न जाने वह कोप तथा ईर्ष्या आदि की अभिव्यक्ति कैसे करेगी?

अपनी प्रिय सखी के निकट 'निर्दय', 'निष्ठुर' कहकर मुझ पर अभियोग लगायेगी, न जाने क्या-क्या कहेगी? उसके अनन्तर मैं कहूँगा कि राधे, तुम्हारे अभाव में धन, जन, गोधन और गृह सम्पदा सब कुछ तुच्छ प्रतीत होता है ॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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