गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 161

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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किं करिष्यति किं वदिष्यति सा चिरं विरहेण।
किं धनेन किं जनेन किं मम जीवितेन गृहेण-
हरि हरि हतादरतया... ॥2॥[1]

अनुवाद- चिरकाल तक निदारुण विरह के ताप से परितप्त होकर न जाने वह क्या करेगी, न जाने क्या कहेगी? अहो! श्रीराधा के विरह में मुझे धन, जन, जीवन तथा निकेतन सब कुछ असार बोध हो रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सा चिरं विरहेण (दीर्घेण मद्विच्छेदेन) [काववस्थां प्राप्य] किं करिष्यति (किमुपायं विधास्यति); [सखीं प्रति], किं वदिष्यति [इत्यहं न जाने]। [तया बिना] मम धनेन (गोधनेन) किं? जनेन (व्रजजनेन) किं? गृहेण (गृहावस्थानेन) किं? [किंबहुना] जीवितेन [वा] किम्; [तां बिना सर्वमेवाकिञचित्करमिति भाव:] [हरि हरि हतादरेत्यादि सर्वत्र योजनीयम्] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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