गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 153

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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साकूत-स्मितमाकुलाकूल-गलद्धम्मिल्लमुल्लासित-
भ्रु-वल्लीकमलीक-दर्शित-भुजामूलार्द्धर्दृष्टस्तनम्।
गोपीनां निभृतं निरीक्ष्य गमिताकांक्षश्चिरं चिन्तय-
न्नान्तर्मुग्ध-मनोहरं हरतु व: क्लेशं नव: केशव: ॥3॥
इति श्रीगीतगोविन्द महाकाव्ये अक्लेश-केशवो नाम द्वितीय: सर्ग:।[1]

अनुवाद- अविवेकी मन को आकर्षित करने वाली गोपियों की साकूत मुस्कान, कामोद्रेक के कारण रोमांञ्च आदि हो जाने से खुले केश वाली, ऊपर उठे हुए हाथों के कारण व्यर्थ ही दिखाये गये दोनों स्तनों का अवलोकन करके अपने हृदय में चिरकाल चिन्तन करके श्रीकृष्ण ने उनके प्रति अपनी आकांक्षाओं को विनष्ट कर दिया है, अब राधाभाव से उल्लसित होकर नवनवायमान रूप से चमत्कृत हो रहे हैं, ऐसे तरुण केशव आप सबके क्लेशों को विनष्ट करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [राधायां नीतं कृष्णाभिप्रायं व्यञ्जयन्नाशास्ते कवि:]- गोपीनां (गोपांगनानां) साकूतस्मितम् (साकूतं प्रेमाभिलाषसमेतं स्मितं मन्दहास: यस्मिन् तत्) आकुलाकुल-गलद्धम्मिल्लम् (आकुलाकुलम् अति शिथिलं यथास्यात्र तथा गलन्त: स्खलन्त: धम्मिल्ला: केशबन्ध: यत्र तत्) उल्लासित-भूरवल्लीकम् (उल्लासिता कुटिलता भ्रूवल्ली भ्रूलता यत्र तत्) अलीकदर्शित-भुजामूलाद्धर्दृष्टस्तनम्र (अलीकं सव्याजं यथा तथा दर्शितेन भुजामूलेन बाहुमूलेन अर्द्ध दृष्टौ स्तनौ यत्र तत्) [अतएव] मुग्धमनोहरं निभृतं रहस्यं तद्भावप्रकाशनं) निरीक्ष्य [श्रीराधाया: सर्वोत्तमतां] चिरम् अन्त: (चित्ते) चिन्तयन् (विचारयन्) [तथा] [अत: उत्तमा अन्या नास्तीति] गमिताकांक्ष: (गमिता तस्यामेव प्रापिता आकांक्षा येन स तथोक्त:) नव: (श्रीराधिकोत्कर्षनिश्चयेन नव इव जात:) केशव: (हरि:) व: (युष्माकं) क्लेशं (संसारतापं) हरतु (दूरीकरोतु) [अत: सर्गोऽयमक्लेशो गत: श्रीराधिकासम्बन्धि-मन:साधारण्याभासरूप: क्लेश: यस्मात्र स केशवो यत्र स:] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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