गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 152

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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पद्यानुवाद
मुझे जलाते हैं अशोक के कोमल किशलय फूल।
बहने वाला मृदु समीर भी, छू उपवन सर-कूल
अलि गुञ्जित मधु आम्र-मञ्जरी चुभती है ज्यों शूल।
जग सरसा है, पर मेरे तो हियमें उड़ती है धूल॥

बालबोबोधिनी- श्रीराधा विप्रलम्भ-श्रृंगार के विभावों का वर्णन करती हुई सखी से कह रही हैं इस वासन्तिक वेला में अशोक वृक्षों को देखना कठिन हो गया है। वृक्ष के नवीन पल्लव विरहाग्नि को उद्दीप्त कर रहे हैं। छोटे-छोटे गुच्छों से युक्त अशोक लताओं को विकसित करने वाली जो वायु सरोवरों के उपवनों से होकर आ रही है, वह अति पीड़ादायिनी हो रही है।

दुरालोक का विग्रह है- दु:खेन आलोक अवलोकनम् यस्याऽसौ।

आम्रवृक्ष के अग्रभाग में जो आम्रमञ्जरियाँ निकल रही हैं और उनके चारों ओर मँडराती हुई भ्रमरियाँ गुञ्जार कर रही हैं। अत:पर यह आम्रमञ्जरी श्रीकृष्ण मिलन में जो मुझे सुखी बनाया करती थीं, वह अब दु:खी बना रही हैं।

भ्राम्यद्रभृंगी पद में भ्रमरियों का निर्देश करके श्रीराधा अपने मन का यह भाव प्रकाशित कर रही हैं कि उनके हृदय में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी भी दूसरे पुरुष की कामना नहीं है। उनकी दृष्टि में एकमात्र कमनीय पुरुष श्रीकृष्ण ही हैं।

प्रस्तुत श्लोक में शिखरिणी छन्द है। रसैरुद्रैश्छिन्ना यमनसभला स: शिखरिणी। इसमें समुच्चय एवं अनुप्रास अलंकार, क्रियोचित्य तथा विप्रलम्भ-श्रृंगार, मागधी एवं गौड़ीया रीति है ॥2॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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