गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 149

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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हस्त-स्रस्त-विलास-वंशमनृजु-भ्रुवल्लिमद्वल्लवी-
वृन्दोत्सारि-दृगन्त-वीक्षितमति स्वेदार्द्र-गण्डस्थलम्।
मामुद्वीक्ष्य विलज्जित-स्मित-सुधा-मुग्धाननं कानने
गोविन्दं व्रजसुन्दरीगण-वृतं पश्यामि हृष्यामि च ॥1॥[1]


अनुवाद- हे सखि! कुटिलतर भ्रुलतामयी गोपवल्लभियों के साथ लीला विलास करते हुए उनके किसी मनोरम अंग पर दृष्टि निक्षिप्त किये हुए, नेत्रों के संकेत से उन्हें दूर हटाने वाले, ब्रजसुन्दरियों के समूह से आवृत श्रीकृष्ण मुझे देखते ही विस्मयाविष्ट हो गये। उस समय मदनावेश के कारण उनके ललित हाथों से वंशी गिर पड़ी, गण्डस्थल पसीने से भीग गया। हर्षोल्लास से उनका मुखकमल मन्द-मुस्कान सी मकरन्द सुधा से परिपूर्ण हो गया। उनकी ऐसी स्थिति देखकर मुझे एक अनिर्वचनीय आनन्द हो रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [सख्या आनीता श्रीराधा गोपयुवती-परिवृतं कृष्णम-वलोक्याहज सखि, कानने (वने) व्रजसुन्दरीगणवृतम् (व्रजयुवती-गणवेष्टितम्) अनृजुभ्रूवल्लिमद्रवल्लवी-वृन्दोत्सारि-दृगन्त-वीक्षितं (अनृजव: कुटिला: भ्रुवल्लय: भ्रूलता: यासां तादृशीनांवल्लवीनां गोपांनानां वृन्दै: समूहै: उत्सारी भंग्या उत्क्षिप्त: दृशाम् अन्तो यस्मिन् तत्र सकटाक्षमित्यर्थ: वीक्षितं दृष्टं), [अतएव] माम् उद्वीक्ष्य विलज्जितस्मित-सुधामुग्धाननं (विलज्जितया सविशेष- लज्जा-मिश्रितया स्मितसुधया सुधावन्मधुरस्मितेन मुग्धं मोहकरम् आननं वदनं यस्य तम्) अतिस्वेदार्द्रगण्डस्थलम्(अतिस्वेदेन मयि अत्यावेशेनेति शेष:, आर्द्रं सिक्तं गण्डस्थलं यस्य तादृशं), [तथा] हस्त स्तविलासवंशम् (हस्त्याभ्यां स्त्रस्त: स्खलित: विलासवंश: मोहन-वेणुर्यस्य तं) गोविन्दं पश्यामि हृष्यामि (आनन्दमनुभवामि) च ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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