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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्
कोकिल-कलरव-कूजितया जित-मनसिज-तन्त्र-विचारम्। अनुवाद- रतिशास्त्र के निगूढ़ तत्त्व को सम्यक् रूप से जानने वाले तथा उसका अनुष्ठान करने वाले जिन श्रीकृष्ण के साथ सुरतकाल में मैं कोकिल के कलरव के समान कुहक उठी, मेरा कबरी-बन्धन खुल गया और उसमें संयुक्त कुसुमावली शिथिल होकर गिर गयी, उन्होंने अपने नखों के आघात से मेरे पीन स्तनयुगल पर न जाने क्या-क्या लिख दिये, हे सखि! उन प्रियतम श्रीकृष्ण से मुझे मिला दो ॥5॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा अपनी सखी से श्रीकृष्ण के साथ अनुभूत वाम्य रति का वर्णन कर रही हैं। सुरतकाल के समय मैं कोयल के समान शब्द करती थी। 'कलरव' शब्द: पारावत पर्य्याय:। रसिक सर्वस्वकार ने कहा है रतिकाल के समय नायक के द्वारा चुम्बन इत्यादि किये जाने के समय नायिका कोयल, पारावत आदि के समान सीत्कार की आवाज करती है। श्रीकृष्ण मेरे केशों को पकड़कर मेरा चुम्बन करते थे तथा मेरे अधरों का पान करते थे। रतिक्रीड़ा में प्रवृत्त होकर वे मेरे पीन तथा सघन स्तनों पर नखक्षत करते थे सखी, मुझे उनसे मिला दो ॥5॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- कोकिल-कलरव-कूजितया (कोकिलस्य कलरव इव कूजितं अव्यक्त-भाषितं यस्या: तया) [मया सह] जित-मनसिज-तन्त्र-विचारं (जित: अभिभूत: मनसिज-तन्त्रस्य कामशास्त्रस्य विचार: येन तं कामशास्त्रविशारदमित्यर्थ:; अतएव शास्त्रेक्त-क्रियातिक्रमो नाशप्रनीय:) [केशिमथनम्.....] [तथा] श्लथ-कुसुमाकुलकुन्तलया (श्लथानि सुरतलीला स्खलितानि कुसुमानि येभ्यस्तादृशा:, आकुला: बन्धनराहित्यात विक्षिप्ता: कुन्तला: यस्यास्तादृश्या) [मया सह] नख-लिखित-घन-स्तन-भारं (नखै: लिखितौ अप्रितौ घनयो: पीवरयो: स्तनयो: भारौ विस्तारौ येन तम्) [केशिमथनम्.....] ॥5॥
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