गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 130

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

5. गीतम्

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जलद-पटल-बलदिन्दु-विनिन्दक-चन्दन-तिलक-ललाटं।
पीन-पयोधर-परिसर-मर्दन-निर्दय-हृदय-कवाटम्-
रासे हरिमिह ... ... ॥5॥[1]

अनुवाद- अपने ललाट में मनोहर चन्दन के तिलक को धारणकर नवीन जलद मण्डल में विद्यमान चञ्चल चन्द्रमा की महती शोभा को पराभूत कर अनिर्वचनीय सुषमा को धारण करने वाले एवं वर युवतियों के पीन पयोधरों के अमूल्य प्रान्त भाग को अपने सुविशाल सुदृढ़ वक्ष:स्थल से निपीड़ित करने में सतत अनुरक्त कवाटमय (किवाड़ स्वरूप) निर्दय-हृदय श्रीकृष्ण का मुझे बार-बार स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद
चन्दन तिलक ललाट विचरचत,
जलद पटलमें विधु सम दर्शित।
युवती पीन पयोधर मर्दित,
अपनी निर्दयता पर हर्षित।
हरि मूरतका ध्यान,
हो आता अनजान॥

बालबोधिनी- सजल बादलों के बीच चञ्चल चन्द्रमा की शोभा अत्यधिक प्रेक्षणीय होती है। श्रीकृष्ण के श्यामवर्ण का विस्तृत ललाट-पटल ही सजल मेघतुल्य है और उस पर श्वेतवर्ण का चन्दन तिलक आट्टादप्रदायी चन्द्रमा की छटाओं का भी तिरस्कार करने वाला है। रतिकाल में युवतियों के कोमल स्तनों को अपने विशाल वक्ष:स्थल से बड़ी ही निर्दयतापूर्वक मर्दन करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे अतिशय स्मरण हो रहा है ॥5॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, जलद-पटल-बलदिन्दु-विनिन्दक-चन्दन-तिलक-ललाटं (जलद-पटलेन मेघसमूहेन बलन् परिस्फुरन् य: इन्दु: चन्द्र: तस्य विनिन्दक: तिरस्कारक: चन्दनतिलक: ललाटे यस्य तादृशं) [तथा] पीन-पयोधर-परिसर-मर्दन-निर्दय-हृदय-कवाटम् (पीनयो: स्थूलयो: पयोधरयो: स्तनयो: य: परिसर: परिणाह: विस्तार इति यावत्र तस्य मर्दनाय निर्दय: हृदयकवाट: विशालं वक्ष: यस्य तादृशम् अत्र हृदयस्य दृढ़त्व-विस्तीर्णत्वाभ्यां कवाटत्वेन निरूपणम्) [मम मन: रासे विहित-विलास-मित्यादि] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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