गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 129

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

5. गीतम्

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विपुल-पुलक-भुज-पल्लव-वलयित-वल्लव-युवति-सहंस्त्र।
कर-चरणोरसि-मणिगण-भूषण-किरण-विभिन्न-तमिस्त्रं-
रासे हरिमिह ... ... ॥4॥[1]

अनुवाद- अतिशय रोमाञ्च से परिप्लुत होकर अपने सुकोमल भुज-पल्लव के द्वारा हजारों-हजारों गोप-युवतियों को समालिंगित करने वाले एवं कर, चरण और वक्षस्थल में ग्रथित मणिमय आभूषणों की किरणों से दिशाओं को आलोकित करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद
पुलक युवती भुज अति आलिंगिति
पद कर मणि द्युति निशि तम चुर्णित॥
हरि मूरतका ध्यान
हो आता अनजान॥

बालबोधिनी- इस समय श्यामसुन्दर के उन कोमल-कोमल पल्लवों के समान हस्तों का मुझे स्मरण हो रहा है, जो प्रभूत रोमाञ्च से युक्त हैं और जिनसे वे सह गोपियों को परिवेष्टित कर उनका समालिंगन करते हैं। उनके कर, चरण तथा हृदयस्थल के आभूषणों के सौन्दर्य की किरणों से सम्पूर्ण अन्धकार विदूरित हो गया है ॥4॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, विपुल-पुलक-भुजपल्लव-वलयित-वल्लव-युवति- सहस्रं (विपुला: अगाधा: पुलका रोमाञ्चा ययोस्ताभ्यां भुजपल्लवाभ्यां पल्लव-पेलव-भुजाभ्यां वलयितं परिवेष्टितम् आलिंगितमित्यर्थ: वल्लव-युवतीनां गोप-तरुणीनां सहस्रं येन तम् एकदानेकालिंगनात् नैकनिष्ठप्रेमाणमित्यर्थ:); [तथा] करचरणोरसि (हस्तपदवक्षसि) मणिगण-भूषण-किरण-विभिन्ना-तमिस्त्रं (मणिगणभूषणानां मणिमयालंकाराणां किरणेन विभिन्नां निराकृतं तमिस्त्रम् अन्धकारो येन तादृशम्) [मम मन: रासे विहितविलासमित्यादि] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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