गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 128

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

5. गीतम्

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गोप-कदम्ब-नितम्बवती-मुख-चुम्बन-लम्भित-लोभं।
बन्धुजीव-मधुराधर-पल्लवमुल्लसित-स्मित-शोभम्
रासे हरिमिह ... ... ॥3॥[1]

अनुवाद- गोपललनाओं के मुखकमल का चुम्बन करने की अभिलाषा से इस अनंग उत्सव में अपने मुख को झुकाये हुए, उनका सुकुमार अधर पल्लव बन्धुक कुसुमवत् मनोहारी अरुण वर्णीय हो रहा है, स्फूर्त्तियुक्त मन्द-मुस्कान की अपूर्व शोभा उनके सुन्दर मुखमण्डल में विस्तार प्राप्त कर रही है, ऐसे उन श्रीकृष्ण का मुझे अति स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद
गोप वधू चुम्बन-रस लोभित
अधर वधूक स्मित मधु शोभित।
पुलक युवति-भुज अति आलिंगित
पद-कर मणि-द्युति निशि-तमचूर्णित॥
हरि मूरतका ध्यान
हो आता अनजान॥

बालबोधिनी- गोपवधुओं के मुख चुम्बन का लोभ धारण करने वाले श्रीकृष्ण की मुझे याद आ रही है। जिस समय वे रहस्यमयी कुञ्जक्रीड़ा में निमग्न रहते हैं, उस समय उन गोपियों के मुख का बारंबार चुम्बन करने का लोभ बढ़ता जाता है। श्रीकृष्ण के बन्धुक अर्थात दुपहरिया के पुष्प के समान लाल-लाल होंठ का मुझे स्मरण आता है। सखि! मुस्कराने पर तो उनकी शोभा और भी बढ़ जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, गोप-कदम्ब-नितम्बवती-मुखचुम्बन-लम्भित-लोभम् (गोप-कदम्बस्य गोपकुलस्य या नितम्बवत्य: नितम्बिन्य: तरुण्य: तासां मुख-चुम्बने लम्भित: प्रापित: लोभ: यस्य तं) [तथा] बन्धुजीव-मधुराधर-पल्लवम् (बन्धुक-पुष्पवत्र अरुण: मधुर: मनोहरश्च अधरपल्लवो यस्य तादृशम्) [तथा] उल्लसित-स्मित-शोभम् (उल्लासिता परिवर्द्धिता स्मितेन मृदुमधुरहासेन शोभा यस्य तथोक्तम्) [मम मन: रासे विहितविलासमित्यादि] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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