गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 120

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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श्रीकृष्ण के अंगो का सौन्दर्य वर्णन करते हुए सखी कहती है कि वे नीलकमल से भी अधिक श्यामल तथा कोमल हैं। इन्दीवर शब्द से शीतलत्व, श्यामलत्व और कोमलत्व सूचित होता है। और भी इन्दीवर शब्द से शैत्य और श्रेणी शब्द से नव-नवायमानत्व समझा जाता है। श्यामल शब्द से सुन्दरत्व और कोमल शब्द से सुकुमारत्व घोषित होता है। अपने इन कोमलतम अंगो के द्वारा श्रीकृष्ण कामोत्सव मना रहे हैं।

व्रजसुन्दरियाँ बिना किसी अवरोध के स्वछन्दतापूर्वक उनके उन-उन अंगो का आलिंगन किये हुए हैं।

रस निष्पत्ति दो प्रकार से होती है। नायक का नायिका के प्रति तथा नायिका का नायक के प्रति अनुराग से। नायक का नायिका के प्रति अनुराग रहने पर भी नायिका का नायक के प्रति जब तक अनुराग नहीं होता तब तक रस की निष्पत्ति नहीं हो सकती है।

प्रश्न होता है कि यहाँ तो परस्पर अनुरंजन मात्र हुआ है, तब रस कहाँ है?

विभाव, अनुभाव, सात्त्विक तथा संचारी भावों के सम्मिलन में रस की स्थिति है। यही रस स्नेह, मान, प्रणय, राग-अनुराग, भाव-महाभाव आदि के क्रम से अभिवर्द्धित होता है। अत: जब प्रेम का परिपाक हो जाता है तब रस का अभ्युदय होता है। यह प्रेम-रस जब प्रकाशित होने लगता है, तब नायक-नायिका में काल, देश और क्रिया के सम्बन्ध में कोई शंकोच नहीं रहता। नि:शंकोच भाव रहने पर भी मिलन में सम्पूर्णता नहीं हो सकती, इसके उत्तर में कहते हैं कि महाभाव रस के द्वारा सर्वांग मिलन सिद्ध होता है।

पुन: शंका होने पर कि श्रीकृष्ण ने अंगनाओं का केवल एकदेशीय रूप में अवलोकन किया है तो इसका निराकरण यह है कि प्रत्यंगमालिंगित अर्थात श्रीकृष्ण ने सर्वांग एक-एक अंग को यथोचित क्रियाओं द्वारा आलिंगन, चुम्बन, स्पर्श आदि के द्वारा उन सबका अनुरञ्जन किया है। अब फिर यह प्रश्न सामने आया कि एकाकी श्रीकृष्ण ने सबका आलिंगन कैसे किया? समाधान यह है कि जैसे श्रृंगार रस एक होकर भी समस्त जगत में परिव्याप्त है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण में भी सर्वव्यापकत्व है। इसी गुण से वह अखिलविश्व का अनुरंजन करते हैं।

प्रस्तुत श्लोक में दीपकालंकार है, वैदर्भी रीति है, शार्दूल विक्रीड़ित छन्द है, श्रृंगार रस है तथा वाक्यौचित्य है। सम्पूर्ण गीत की नायिका श्रीराधा उत्कण्ठिता नायिका हैं। नायक के द्वारा विपरीत आचरण किये जाने पर जो नायिका विरहोत्कण्ठिता तथा उदास रहती है, वह उत्कण्ठिता नायिका कहलाती है ॥1॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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