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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्
विश्वेषामनुरंञ्जनेन जनयन्नानन्दमिन्दीवर- अनुवाद- हे सखि! इस वसन्तकाल में विलास-रस में उन्मत्त श्रीकृष्ण मूर्त्तिमान श्रृंगार रसस्वरूप होकर विहार कर रहे हैं। वे इन्दीवर कमल से भी अतीव अभिराम कोमल श्यामल अंगो से कन्दर्प महोत्सव का सम्पादन कर रहे हैं। गोपियों की जितनी भी अभिलाषा है, उससे भी कहीं अधिक उनकी उन्मत्त लालसाओं को अति अनुराग के साथ तृप्त कर रहे हैं। परन्तु व्रजसुन्दरियाँ विपरीत रतिरस में आविष्ट हो विवश होकर उनके प्रत्येक अंगप्रत्यंग को सम्यक् एवं स्वतन्त्र रूप से आलिंगित कर रही हैं ॥1॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी की उद्दीपना भावना को अभिवर्द्धित करने हेतु उन्हें प्रियतम श्रीहरि की श्रृंगारिक चेष्टाओं को दिखलाती हुई कहती है सखि! देखो, इस समय वसन्तकाल है, इसमें भी मधुमास है और श्रीहरि मुग्ध होकर समस्त गोपीयों के साथ साक्षात्र श्रृंगार रस के समान क्रीड़ा विलास कर रहे हैं, श्रृंगार: सखि: मूर्त्तिमानिव श्रीकृष्ण को मूर्त्तिमान श्रृंगार रस के समान बनाकर सखी के द्वारा उनका प्रमदासंगत्व स्वरूप व्यक्त हुआ है। पुरुष: प्रमदायुक्त: श्रृंगार इति संज्ञित: प्रमदा से युक्त पुरुष श्रृंगार कहलाता है। गोपियों की जितनी भी अभिलाषा रही, उससे भी कहीं अधिक रूप में श्रीकृष्ण अनंग-उत्सव द्वारा उनका अनुरञ्जन कर रहे हैं, आनन्दवर्द्धन कर रहे हैं। वे श्रीहरि अनुराग के द्वारा समस्त जीवों को आनन्द प्रदान कर रहे हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, अनुरञ्जनेन (स्वस्ववाञ्छातिरिक्त-रसदान-प्रीणतेन) विश्वेषाम् (जगताम्) आनन्दं जनयन्, मुग्ध: (सुन्दर:) हरि: मधौ (वसन्ते) इन्दीवर-श्रेणी-श्यामल-कोमलै: (नीलोत्पल- श्रेणीतोऽपि श्यामलै: सुकुमारैश्च) अंगै: अनंगोत्सवं (कामोल्लासं) उपनयन् (संवर्द्धन्) [अत्र इन्दीवर-शब्देन शीतलत्वं, श्रेणीशब्देन नवनवायमानत्वं, श्यामलपदेन सुन्दरत्वं, कोमलशब्देन सुकुमारत्वञ्च सूचितम्] अभित:, (समस्तत:, सर्वैरंगैरित्यर्थ:) व्रजसुन्दरीभि: स्वच्छन्दं, [यथास्यात् तथा] प्रत्यवयम् (प्रत्यवयम्) आलिंगित: (प्रगाढ़ाश्लिष्ट:; आलिंगनानु-रञ्जनेनानुरञ्जित इत्यर्थ:) मूर्त्तिमान् (देहधर:) श्रृंगार: (श्रृंगाररस:) इव क्रीड़ति (एक एव विश्वमनुरञ्जयन् आनन्दयति) [श्रृंगार-रसोऽपि श्यामवर्ण:-यथा- स्थायी भावो रति: श्यामवर्णो यं विष्णुदैवत: इति] ॥9॥
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