गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 118

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमिदमभुत-केशव-केलि-रहस्यं।
वृन्दावन-विपिने ललितं वितनोतु शुभानि यशस्यम्
[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥8॥][1]

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित यह अद्भुत मंगलमय ललित गीत सभी के यश का विस्तार करे। यह शुभद गीत श्रीवृन्दावन के विपिन विहार में श्रीराधा जी के विलास परीक्षण एवं श्रीकृष्ण के द्वारा की गयी अद्भुत कामक्रीड़ा के रहस्य से सम्बन्धित है। यह गान वन बिहारजनित सौष्ठव को अभिवर्द्धित करने वाला है।

पद्यानुवाद
मग्न हुए रस सरिमें कवि 'जय' निशिदिन बहते बहते।
श्रोता भी हों मुक्त क्लेशसे सब कुछ सहते सहते॥

बालबोधिनी- गीत के उपसंहार में कहा गया है कि कवि जयदेव जी ने श्रीकेशव की अद्भुत केलिक्रीड़ा-रहस्य का इस गीत में निरूपण किया है। अद्भुत रहस्य यह है कि एक ही श्रीकृष्ण ने एक ही समय में अनेक वरांगनाओं की अभिलाषाओं की पूर्त्ति करते हुए उनके साथ क्रीड़ा की। ताल और राग में आबद्ध होने के कारण यह गीत अति ललित है। इसके लालित्य का सबसे बड़ा कारण यह है कि इसमें श्रीकेशव की केलि-कला का रहस्य वर्णित है। यह मंजुल मधुर गीत पढ़ने और सुनने वाले भक्तजनों का कल्याण करे और उनके सुयश की वृद्धि करे ॥8॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- श्रीजयदेव-भणितम् (श्रीजयदेवेन भणितम् उक्तम्) वृन्दावन-विपिने ललितं (मनोहरं) यशस्यम् (यशस्करम्) इदम् अद्भुत-केशव-केलिरहस्यं (अद्भुतम् वैदग्धी-विशेषेण विचित्रं श्रीराधाविलापपरीक्षणरूपं केशवस्य केलिरहस्यं) [भक्तानां] शुभानि वितनोतु (विस्तारयतु) ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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