विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्
कापि कपोलतले मिलिता लपितुं किमपि श्रुतिमूले। अनुवाद- वह देखो सखि! एक नितम्बिनी (गोपी) ने अपने प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के कर्ण (श्रुतिमूल) में कोई रहस्यपूर्ण बात करने के बहाने जैसे ही गण्डस्थल पर मुँह लगाया तभी श्रीकृष्ण उसके सरस अभिप्राय को समझ गये और रोमाञ्चित हो उठे। पुलकाञ्चित श्रीकृष्ण को देख वह रसिका नायिका अपनी मनोवाञ्छा को पूर्ण करने हेतु अनुकूल अवसर प्राप्त करके उनके कपोल को परमानन्द में निमग्न हो चुम्बन करने लगी। पद्यानुवाद बालबोधिनी- नितम्बवती किसी प्रौढ़ा नायिका की सौन्दर्या-तिशयता को इस पद द्वारा सूचित किया गया है। सखियों के बीच में प्रियतम का चुम्बन करना अनुचित है, इसलिए कार्यान्तर बोधन का बहाना बनाकर उसने श्रीकृष्ण के कपोलप्रान्त को चूम लिया इस वाक्यांश के द्वारा नायिका के श्रृंगार वैदग्ध्य को सूचित किया गया है, यहाँ श्रीकृष्ण अनुकूल नायक हैं ॥4॥
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, नितम्बवती (विपुलनितम्बा) कापि (तरुणी गोपांगना) श्रुतिमूले (कर्णमूले) किमपि लपितुं (भाषितुं) मिलिता (किञ्चित्र कथनच्छलेन स ता सती) पुलकै: (रोमाञ्चै:) [प्रियतम-स्पर्शसुखेन-अधीरा सतीति भाव:] अनुकूले (अभिलाषुके, प्रियाभिलाषसूचके इति यावत्) कपोलतले (प्रियतमस्य गण्डदेशे) चारु (मनोज्ञ्ं यथास्यात्र तथा) दयितं (प्रियं हरिं) चुचुम्ब ॥4॥
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |