गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 110

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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पीन-पयोधर-भार-भरेण हरिं परिरभ्य सरागं।
गोपवधूरनुगायति काचिदुदञ्चित-पञ्चम-रागम
[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... 2][1]

अनुवाद- देखो सखि! वह एक गोपांगना अपने पीनतर पयोधर-युगल के विपुल भार को श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर सन्निविष्टकर प्रगाढ़ अनुराग के साथ सुदृढ़रूप से आलिंगन करती हुई उनके साथ पञ््चम स्वर में गाने लगती है।

पद्यानुवाद
कोई पीन पयोधर गोपी युग भुजमें बँध जाती
हरि गायनके अन्त साथ उठ पञ्चम स्वर में गाती॥

बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी से गोपियों की श्रीकृष्ण के साथ की जाने वाली चेष्टाओं का वर्णन करती हुई कहती है- हे राधे, तुम्हारे साथ श्रीकृष्ण का जो विलास है, वह असमोर्द्ध है। विपुल स्तन वाली गौरवातिशय युक्ता गोपी के द्वारा अतिशय अनुराग के साथ श्रीकृष्ण का आलिंगन किया जाना तो एक आभास मात्र है। भला ये सुन्दरियाँ तुम्हारी समानता कहाँ कर सकती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, काचित्र गोपवधू: पीनपयोधर-भार-भरेण (पीनयो: विशालयो: पयोधरयो: स्तनयो: भारभरेण भारातिशयेन; निविड़-स्तनभारातिशयेन इत्यर्थ:) सरागं [यथास्यात् तथा] हरिं परिरभ्य (निर्भरमालिंग्य) उदंचितपंचमरागं (उदंचित उद्घोषित उच्चैर्गीत इति यावत्र पंचमरागो यस्मिन् तद् यथा तथा) अनु (पश्चात् परिरम्भणानन्तरमित्यर्थ:) गायति। हरिरिहेत्यादि सर्वत्र योज्यम् ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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