गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 11

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयत:

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प्रस्तावना

(ञ)

इस चतुर्थ चरण का यह भी अभिप्राय है कि इन समस्त वस्तुओं का पूर्णत: शुद्धरूप इस गीतगोविन्द काव्य में ही एकमात्र उपलब्ध हो सकता है। अतएव विद्वानों को चाहिए कि वे इस काव्य को भलीभाँति परीक्षण करके देखें और जानें भी। श्रीजयदेव कवि को इस बात का दृढ़ विश्वास है कि श्रीगीतगोविन्द-काव्य के माधुर्य के सामने अंगूर की मदिरा, चीनी की मिठास, पके आम्रफल तथा कामिनी के अधररस ये सब उपेक्षणीय हैं; क्योंकि इस श्रृंगार काव्य में श्रृंगार रस का सम्पूर्ण सार समाविष्ट है।

साध्वी! माध्वीक चिन्ता न भवति भवति शर्करे! कर्कशासि,
द्राक्षे! द्रक्ष्यन्ति के त्वाममृत! मृतमसि क्षीर! नीरं रसस्ते।
माकन्द! क्रन्द कान्ताधर! धर न तुलां गच्छ यच्छन्ति भावं,
यावच्छृंगरसारं शुभमिव जयदेवस्य वैदग्ध्यवाच:॥

इस काव्य में श्रीजयदेव गोस्वामी ने विभिन्न छन्द, रस अलंकार और औचित्यों का सन्निवेश किया है। श्रीराधामाधव- विलास का मधुर गायन ही कवि का प्रमुख ध्येय है। इस काव्य की चौब्बीस अष्टपदियों के माध्यम से कवि ने संगीत शास्त्र तथा रस शास्त्र के अपने गहन अध्ययन का विशद्र परिचय दिया है। प्रत्येक अष्टपदी के भिन्न-भिन्न राग और ताल हैं। लगता है कि श्रीराधामाधव के सम्भोग और वियोग का कवि ने समाधि की स्थिति में साक्षात कार किया है।

गीतगोविन्द में प्रवेश-प्रणाली

कविवर श्रीजयदेव गोस्वामी ने श्रीकृष्ण के साथ श्रीराधा के सम्मिलन में एक सखी को मध्यवर्तिनी रखा है। सखी के अनुगत हुए बिना तथा उनकी सहायता प्राप्त किये बिना श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यही समस्त भक्तिशास्त्रें का सिद्धान्त है। सखी की सहायता और गुरु की सहायता एक ही बात है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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