गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 108

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ चतुर्थ सन्दर्भ
4. गीतम्

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नीचे प्रत्येक पद्य, अन्वय, श्लोकानुवाद, पद्यानुवाद तथा बालबोधिनी व्याख्या दी जा रही है।

चतुर्थ प्रबन्ध के श्लोक रामकिरी राग तथा यति ताल से गाये जाते हैं।

चन्दन-चर्चित-नील-कलेवर पीतवसन-वनमाली
केलिचलन्मणि-कुण्डल-मण्डित-गण्डयुग-स्मितशाली
हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे
विलासिनी विलसति केलिपरे ॥1॥ ध्रुवम्र॥[1]

अनुवाद- हे विलासिनी श्रीराधे! देखो! पीतवसन धारण किये हुए, अपने तमाल-श्यामल-अंगो में चन्दन का विलेपन करते हुए, केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिन में मुग्ध वधुटियों के साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण दोनों कानों में कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, उनके कपोलद्वय की शोभा अति अद्भुत है। मधुमय हासविलास के द्वारा मुखमण्डल अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ॥1॥

पद्यानुवाद
चन्दन चर्चित नील कलेवर पीत वसन वनमाली
केलि चञ्चला मणि कुण्डल गति स्मितमुख शोभाशाली।
काम मोहिता, रूप गर्विता, गोपीजन कर साधे
विलस रहे हैं श्रीहरि आतुर, निरखि विलासिनि राधे॥

बालबोधिनी- इस गीत का राग रामकरी तथा झम्पा ताल है। रस-मञ्जरीकार ने यहाँ रूपक ताल माना है। जब कान्ता नीलवसन धारणकर प्रभातकालीन आकाश की भाँति स्वर्णिम आभूषण पहनकर अपने कान्त के प्रति उन्नात प्रकार का मान कर बैठती है, तब वह कान्त उनके चरणों के समीप स्थित होकर मनाने लगते हैं, उस समयावस्था का वर्णन रामकरी राग में होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि विलासिनि (विलासवति) केलि-चलन्मणि- कुण्डल-मण्डित-गण्डयुग-स्मितशाली (केलिना क्रीड़ारसेन चलन्ती ये मणिकुण्डले रत्नमय-कर्णभूषणे ताभ्यां मण्डितं शोभितं गण्डयुगं कपोलयुगलं यस्य स:; तथा स्मितेन मृदुहासेन शालते शोभते इति स्मितशाली, स चासौ स चेति तथा) चन्दन-चर्चित-नीलकलेवर-पीतवसन-वनमाली (चन्दनै: चर्चितम् अनुलिप्तं नीलं कलेवरं यस्य स:; तथा पीत वसनं यस्य तथोक्त:; तथा वनमाली वनकुसुम-मालाधर:; स चासौ स चासौ स चासौ स चेति तथा) हरि: इह (अस्मिन्) केलिपरे (क्रीड़ासक्ते) मुग्धवधूनिकरे (सुन्दरी-समूहे) विलसति (विहरति) [अहो श्रीकृष्णस्य अकृत-वेदित्वम्! त्वद्दत्त-चन्दन-वनमाला-भूषित स्त्वद्रवर्णवसनावृतांयष्टिरेव विलसतीत्यवलोकय] ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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