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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ चतुर्थ सन्दर्भ
अनेक-नारी-परिरम्भ-सम्भ्रम- अनुवाद- अनन्तर श्रीराधिका जी की सखी ने बड़ी चतुरता से श्रीकृष्ण का अनुसन्धान कर लिया। सखी ने देखा कि अति सान्निध्य में ही श्रीकृष्ण गोप-युवतियों के साथ प्रमोद विलास में निमग्न आदरातिशयता को प्राप्त कर रहे हैं। उन रमणियों के द्वारा आलिंगन की उत्सुकता दिखाये जाने पर श्रीकृष्ण के मन में मनोज्ञ मनोहर विलास की लालसा जाग उठी है। सखी अन्तराल से (आड़ में छिपकर) राधा जी को दिखलाती हुई पुन: यह बोली पद्यानुवाद बालबोधिनी- वनशोभा के चित्रण आदि के द्वारा कवि ने श्रीराधा जी के सुदीप्त भाव को प्रकाशित किया है। कोई सखी श्रीराधा जी के समीप उपस्थित होकर श्रीकृष्ण के अभिप्राय को साक्षात्र रूप से दिखलाती हुई कहती है (अनेक नारी इति श्लोक के द्वारा) सखि देखो! मुरारि इस समय क्या कर रहे हैं? वे इस समय इतनी तरुणियों का आलिंगन प्राप्त करके भी तृप्त नहीं हो सके हैं, इसलिए अति मनोहारिणी श्रीराधा जी से मिलन की उत्सुकता प्रकट करने लगे हैं और विलास की लालसा से उत्कण्ठित हो गये हैं। श्रीकृष्ण का लीलाविलास नित्य है, इसलिए यह प्रत्यक्ष भी है। विरह में स्मरण, स्फूर्त्ति तथा आविर्भाव- ये तीन वैशिष्ट्य परिलक्षित होते हैं। अत: यहाँ विलास का स्फुरित होना युक्तिसंगत है। इसमें वंशस्थविला छन्द, अनुप्रास अलंकार एवं दक्षिण नायक हैं ॥1॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [ततश्च तयो: श्रीकृष्णानुसन्धान-चेष्टा सफला सञ्जाता। श्रीकृष्ण: तयोर्नेत्रपथवर्त्ती वभुव एवं समये] असौ (पूर्वोक्ता श्रीराधाया: सखी) आरात् (अनतिदूरे) [समवस्थितमिति शेष:] अनेकनारी-परिरम्भ-सम्भ्रम-स्फुरन्मनोहारि-विलासलालसम् (अनेकानां नारीणां गोपतरुणीनां परिरम्भे निर्भरालिंग ने य: सम्भ्रम: आवेग: तेन स्फुरन् निरतिशयस्फूर्त्तिशाली अतएव मनोहारी चित्ताकर्षणकारी य: विलास: केलि: तत्र लालसा एकान्तौत्सुक्यं यस्य तादृशं) मुरारिं समक्षं (अक्ष्णो: समीपे) उपदर्शयन्ती (अंगुलीसप्रेतेन प्रदर्शयन्ती) पुन: राधिकाम् आह ॥1॥
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