गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 104

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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उन्मीलन्मधुगन्ध-लुब्ध-मधुप-व्याधूत-चूतांकुर-
क्रीड़त्र-कोकिल-काकली-कलकलैरुद्गीर्णकर्णज्वरा:।
नीयन्ते पथिकै: कथंकथमपि ध्यानावधानक्षण-
प्राप्त-प्राणसमा-समागम-रसोल्लासैरमी वासरा: ॥3॥
इति श्रीगीतगोविन्दे तृतीय सन्दर्भ:।[1]

अनुवाद- हे सखि! देखो! उन्मीलित आम्र मुकुल के पुष्प किञ्जल्क के मधुगन्ध के लुब्ध भ्रमरों से प्रकाशित मञ्जरियों पर कोयलें क्रीड़ा करती हुई कुहु-कुहु रवसे मधुर ध्वनि कर रही हैं और इस कोलाहल से विरहीजनों को कर्णज्वर हो रहा है। वसन्त ऋतु के वासरों में विरहीजन अतिशय कठोर विरह यातना के कारण प्राणसम प्रेयसियों का चिन्तन करने लगते हैं। तब उनके मुखमण्डल के ध्यान से, उनके समागम जनित आनन्द के आविर्भूत हो जाने से क्षणिक सुख लाभ करते हुए वे अति कष्टपूर्वक समय को अतिवाहित करते हैं ॥3॥

बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी से कह रही है कि विरहीजनों का प्रिय विरह भी अति दु:सह होता है। श्रीकृष्ण की विरह में मलय पवन ही केवल पीड़ाप्रद होता है, ऐसा नहीं, आम्रवृक्ष में बैठने वाली कोयलों की कुहु-कुहु अति मधुर एवं अस्फुट ध्वनि चारों ओर गुञ्जन करने लगती है, जिसमें विरहीजनों का हृदय अतिशय रूप से अनुतप्त होता है। ये क्रीड़ापरायण कोयलें कलध्वनि से कर्णज्वर प्रादुर्भूत कर रही हैं। जब कोयल का स्वर सुनकर विरही प्रियतमा का स्मरण करते हैं तो उन्हें लगता है कि प्राणसमा प्रियतमा का समागम हो गया है। यह समय अति कष्टपूर्वक अतिवाहित होता है।

इस श्लोक में शार्दूल विक्रीडित छन्द है। इनमें काव्यलिंग नामक अलंकार, गौड़ीया रीति तथा विप्रलम्भ श्रृंगार रस है। 'वासरा:' पद में बहुवचन का प्रयोग औचित्ययुक्त है ॥3॥

इति श्रीगीतगोविन्दे तृतीय: सन्दर्भ:।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [इदानीं चिरविरहिण: प्रियासंगमं विना दिनयापनं दुर्घटमित्याह]- उन्मीलन्मधु-गन्ध-लुब्ध-मधुप-व्याधूत-चुतांकुर- क्रीड़त्-कोकिल-काकली-कलकलै: (उन्मीलत्सु प्रसरत्सु मधुगन्धेषु मकरन्दगन्धेषु लुब्धै: लोलुपै: मधुपै: भ्रमरै: व्याधूता: कम्पिता: ये चूतांकुरा: आम्रमुकुलानि तेषु क्रीडतां कोकिलानां काकलीकलकलै: सूक्ष्ममधुरी-स्फुटध्वनिभि:) उद्गीर्णकर्णज्वरा: (उद्रगीर्णा: उद्भूता: कर्णज्वरा: श्रोत्रपीडा: येषु तथोक्ता:) ध्यानावधान-क्षणप्राप्तप्राणसमा-समागम-रसोल्लासै: (ध्यानं कान्तायाश्चिन्तनं तत्र यत् अवधानम् अभिनिवेश: तस्य क्षणे प्राप्त: अनुभूत: प्राणसमाया: प्रणयिन्या: समागमरसेन संगसुखेन उल्लास: आनन्द: यै: तादृशै: सद्भि:) पथिकै: (विरहिभि:) अमी वासरा: (वसन्तदिवसा:) कथंकथमपि (अतिकृच्छ्रेण) नीयन्ते (अतिबाह्यन्ते) ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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