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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्
अद्योत्संग-वसद्भुज-कवल-क्लेशादिवेशाचलं अनुवाद- अरी सखि! सुना है श्रीखण्डशैल (मलय पर्वत) में बहुत से सर्प निवास करते हैं, वहाँ का पवन भुजंगों के विष से निश्चित ही जर्ज्जर हो गया है, इससे ऐसा लगता है कि वह उस विष ज्वाला से जलकर हिम सलिल में स्नान करने के लिए हिमालय की ओर प्रवाहित होने लगा है। देखो! देखो! सखि! मधुर, मनोहर, स्निग्ध रसालमौलि मुकुलों (मंजरियों) को देखकर हर्ष से विभोर कोकिल कुहु-कुहु की मधुर वाणी में उच्चस्वरसे कूजन कर रही है। पद्यानुवाद बालबोधिनी- प्रस्तुत श्लोक में सखी ने श्रृंगार रस के दोनों विभावों का चित्रण किया है। इस मधुमास में मलयाचल की वायु हिमदेश की ओर आ रही है। रात दिन मलयगिरि में चन्दन के वृक्षों पर जहरीले साँप अवस्थित रहते हैं। इसी कारण वह हवा हिमालय की ओर प्रस्थान कर रही है। सर्पों के दंशन के कारण मलयाचल में सन्ताप उत्पन्ना हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने उस सन्ताप के कारण ही हवा हिमालय की शीत हवा का आनन्द प्राप्त करने के लिए हिमदेश को जा रही है। इस समय रसाल तरुवरों में मंजरियाँ भी उद्भुत हो जाती हैं। इन आम की बौरों को देखकर कोकिल समुदाय हर्ष से आट्टादित होकर उच्च स्वर से कुहु-कुहु का स्वर आलाप करने लगा है। इस तरह की उन्मादिनी प्रोन्मादिनी वेला में श्रीकृष्ण से तुम्हारा डरना उचित नहीं है, राधे! प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द, अनुप्रास तथा उपमा अलंकार, वैदर्भी रीति तथा विप्रलम्भ श्रृंगार का सूचक रति नामक स्थायी भाव है ॥2॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अद्य (अधुना) श्रीखण्डशैलानिल: (श्रीखण्डशैलस्य मलयाचलस्य अनिल: वायु:) उत्संग-वसद्रभुजंग-कवल-क्लेशात् इव (उत्संगे क्रोड़े वसन्त: ये भूजंगा: सर्पा: तेषां कवलेन ग्रासेन य: क्लेश: तस्मात्); [भुजंगा: पवनाशना: इति लोके प्रसिद्धिमेव तस्य; भुजड्ग़कवलेन विषव्याप्तदेहत्वादिति भाव: प्रालेय-प्लवनेच्छया (प्रालेयेषु हिमेषु प्लवनेच्छया अवगाहनाशया विषज्वालाया: शान्तये इति भाव:) ईशाचलं (ईशस्य महादेवस्य अचल: पर्वत: हिमाचलस्तं) अनुसरति (गच्छति); [चन्दनतरु कोटरस्थ-विषधर-कवल-सन्तप्तोवायु: हिमस्नानेच्छया हिमाचलं यातीव; वसन्ते दक्षिणदिर्गवर्त्तिनो मलयाचलात् वायेरुत्तरत्र गमनात्र उत्तरे च हिमाचलस्य अवस्थानात् इयमुत्प्रेक्षा। [किंच] स्निग्ध-रसाल-मौलिमुकुलानि (स्निग्धानि कोमलानि रसालानां चूततरूणां मौलिषु शिखरेषु यानि मुकुलानि तानि) आलोक्य (दृष्ट्रवा) हर्षोदयात्र (आनन्दोदयात्) पिकानां (कोकिलानां) कुहु: कुहूरिति कलोत्ताला: (कला अव्यक्तमधुरा उत्ताला अत्युच्चा:), गिर: (ध्वनय:) उन्मीलन्ति (उद्रगच्छन्ति) ॥2॥
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