गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 101

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमिदमुदयतु हरिचरणस्मृतिसारं।
सरस-वसन्त-समय वनवर्णनमनुगत मदन-विकारम्-
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते.... 8[1]

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा वर्णित श्रीकृष्ण-विरहजनित उत्कण्ठिता श्रीराधा के मदनविकार से सम्वलित इस वसन्त समय की वनशोभा का चित्रणरूप यह सरस मंगलगीत अति उत्कृष्ट रूप से प्रकाशित हुआ है। यह वासन्तिक काल कामविकारों से अनुस्यूत है जो श्रीहरि के चरणकमल की स्मृति को उदित कराता है ॥8॥

पद्यानुवाद
श्रीजयदेव काव्य केवल हरि-चरण-स्मृतिका सार,
सरस वसन्त समय वन-वर्णन अनुगत मदन-विकार।
लहर उठता रमणीका चीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर ॥8॥

बालबोधिनी- कवि श्रीजयदेव इस गीत का उपसंहार करते हुए इसके उत्कर्ष का वर्णन करते हैं। इस मंगलगीत में हरिचरण स्मृतिसाररूप श्रृंगार-रस के पोषक वसन्तकाल के वनविहार का अभिव्यंजन है। इस गीत की जय हो। जिसका मदनविकार हुआ है, ऐसे निकटवर्त्ती जन ही इसका श्रवण करें, जिससे उनके विकार दूर हो जायेंगे।

यह मंगलगीत अष्टपदीय है, जिसमें जाति नामक अलकांर है। इसमें वर्णित श्रीराधा मध्या नायिका हैं। इसमें श्रीकृष्ण दक्षिण नायक के रूप में हैं। इसमें श्रृंगार रस का विप्रलम्भ भाव है। इसमें प्रयुक्त छन्द का नाम लय है।

इस तृतीय प्रबन्ध का नाम माधवोत्सव कमलाकर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- श्रीजयदेव-भणितम् (जयदेवोक्तं) इदम् अनुगत- मदनविकारं (अनुगतं अनुसृतं मदनस्य कामस्य विकारो विक्रिया येन तत्र कामाद्दीपकमित्यर्थ:) हरि-चरण-स्मृतिसारं (हरिचरणयो: स्मृति: स्मरणमेव सार: परमार्थो यस्य तथाभूतं) सरस-वसन्तमय-वनवर्णनं (सरस: य: वसन्तसमय: तत्र वनवर्णनम्) उदयतु (भक्तहृदये वृद्धिं गच्छतु) ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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