गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 100

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्

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स्फुरदतिमुक्तालता-परिरम्भण-पुलकित-मुकुलित चूते
वृन्दावन-विपिने परिसर-परिगत-यमुनाजलपूते
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते.... ॥7॥[1]

अनुवाद- हे सखि! चपल मुक्तालता के आलिंगन से युक्त मुकुलित (मंजरियों से पूर्ण) तथा रोमांचित आम्रवृक्षों से युक्त वृन्दाविपिन के सन्निकट प्रवाहमाना यमुना के पावन जल में श्रीहरि युवतियों के साथ परस्पर मिलित होकर विहार कर रहे हैं ॥7॥

पद्यानुवाद
वायु चंचलित लता माधवीसे आलिगिंत आम,
परिपुष्पित है पूत जमुन-जल से वृन्दावन-धाम
समाया उसमें सागर क्षीर
नाचते हैं हरि सरस अधीर

बालबोधिनी- इस वासन्तिक काल में चेतन के साथ जड़ पदार्थ भी काम से विकृत देखे जा सकते हैं। समीरण के वश हुई अतिमुक्तालता (माधवीलता) ने जब आम्रवृक्ष का आलिंगन किया तो वह मुकुलित और रोमांचित हो गया। सन्निकट में प्रवाहित होने वाली यमुना के जल से पवित्र वृन्दाविपिन में श्रीकृष्ण केलिक्रीड़ा कर रहे हैं ॥7॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- स्फुरदतिमुक्तालता-परिरम्भण-पुलकित-मुकुलित-चूते (स्फूरन्तीनां आकम्पितानाम् अतिमुक्तालतानां माधवीलतानां परिरम्भणेन आलि नेन पुलकिता: जातरोमांचा: इव मुकुलिता: ईषद्रविकसितमुकुला: चूता: रसाला: यत्र तादृशे) [यथा कश्चित् वरानालि ति: जातरोमांचो भवति तथेति भाव:]; [तथा] परिसर-परिगत-यमुना-जलपूते (परिसरेषु पर्यन्तभूमिषु प्रान्तेषु इत्यर्थ: परिगता प्राप्ता या यमुना तस्या: जलै: पूते पवित्रीकृते सुशोभिते इति तात्पर्यार्थ:) वृन्दावन-विपिने (वृन्दावन-कानने) [सरसवसन्ते हरि: इत्यादि] ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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