गीता 4:25

गीता अध्याय-4 श्लोक-25 / Gita Chapter-4 Verse-25

प्रसंग-


इस प्रकार दैवयज्ञ और अभेद दर्शन रूप यज्ञ का वर्णन करने के अनन्तर अब इन्द्रिय संयम रूप यज्ञ का और विषय हवन रूप का वर्णन करते हैं-


दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति ॥25॥




दूसरे योगीजन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का ही भली-भाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्मा परमात्मा रूप अग्नि में अभेद दर्शन रूप यज्ञ के द्वारा ही आत्म रूप यज्ञ का हवन किया करते हैं ॥25॥


some yogis perfectly worship the demigods by offering different sacrifices to them, and some of them offer sacrifices in the fire of the Supreme Brahman. ॥25॥


अपरे = दूसरे; योगिन: = योगीजन; दैवम् = देवताओं के पूजनरूप; पर्युपासते = अच्छी प्रकार उपासते हैं अर्थात् करते हैं (और ); अपरे = दूसरे (ज्ञानीजन ); ब्रह्मग्नौ = परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में; यज्ञेन = यज्ञ के द्वारा; उपजुहृति = हवन करते हैं



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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