गीता 4:10

गीता अध्याय-4 श्लोक-10 / Gita Chapter-4 Verse-10

प्रसंग-


पूर्व श्लोकों में भगवान् ने यह बात कही कि मेरे जन्म और कर्मों को जो दिव्य समझ लेते हैं, उन अनन्यप्रेमी भक्तों को मेरी प्राप्ति हो जाती है; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उनको आप किस प्रकार और किस रूप में मिलते हैं ? इस पर कहते हैं


वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ॥10॥




पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपुर्युक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप हो प्राप्त हो चुके हैं ॥10॥


Compeletly rid of passion, fear and anger, wholly absorbed in Me, depending on Me, and purified by the penance of wisdom; many have become one with Me even in the past.(10)


वीतरागभयक्रोधा: = राग भय और क्रोध से रहित; मन्मया: = अनन्यभाव से मेरे में स्थिति वाले; माम् = मेरे; उपाश्रिता: = शरण हुए; बहव: = बहुत से पुरुष; ज्ञानतपसा = ज्ञानरूप तप से; पूता: = पवित्र हुए; भद्भावम् = मेरे स्वरूप को; आगता: = प्राप्त हो चुके हैं।



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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