यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि शास्त्र विहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्म भी तो बन्धन के हेतु माने गये हैं; फिर कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ कैसे है ? इस पर कहते हैं-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्राकर्मण: । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: ॥8॥
तू शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ॥8॥
Therefore, do you perform your allotted duty; for action is superior to inaction. Desisting from action, you cannot even maintain your body.(8)
त्वम् = तूं ; नियतम् = शास्त्रविधिसे नियत किये हुए ; कर्म = स्वधर्मरूप कर्मको ; कुरु = कर ; हि = क्योंकि ; अकर्मण: = कर्म न करने की अपेक्षा ; कर्म = कर्म करना ; ज्याय: = श्रेष्ठ है ; च = तथा ; अकर्मण: = कर्म न करनेसे ; ते = तेरा ; शरीरयात्रा = शरीरनिर्वाह ; अपि = भी ; न = नहीं ; प्रसिद्धच्येत् = सिद्ध होगा ;