गीता 18:77

गीता अध्याय-18 श्लोक-77 / Gita Chapter-18 Verse-77

प्रसंग-


इस प्रकार गीताशास्त्र की स्मृति का महत्त्व बतलाकर अब संजय[1] अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए भगवान् के विराट् स्वरूप की स्मृति का महत्त्व दिखलाते हैं।


तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: ।
विस्मयो मे महाराजन्हृष्यामि च पुन: पुन: ॥77॥



हे राजन्! श्रीहरि के उस अत्यन्त विलक्षण रूप को पुन:-पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ॥77॥

Remembering also, again and again, that most wonderful Form of Sri Krishna, great is my wonder and I rejoice over and over again.(77)


राजन् = हे राजन्; हरे: = श्रीहरि के; तत् = उस; अति = अति; अद्भुतम् = अद्भुत; रूपम् = रूप को; संस्मृत्य = पुन: पुन: स्मरण करके; मे = मेरे; महान = महान; विस्मय: = आश्चर्य; पुन: पुन: = बारम्बार; हृष्यामि = हर्षित होता हूँ



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संजय धृतराष्ट्र की राजसभा का सम्मानित सदस्य था। जाति से वह बुनकर था। वह विनम्र और धार्मिक स्वभाव का था और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध था। वह राजा को समय-समय पर सलाह देता रहता था।

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