गीता 16:18

गीता अध्याय-16 श्लोक-18 / Gita Chapter-16 Verse-18

प्रसंग-


इस प्रकार आसुर- स्वभाव वाले मनुष्यों के यज्ञ का स्वरूप बतलाकर अब उनकी दुर्गति के कारण रूप स्वभाव का वर्णन करते हैं-


अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता: ।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका: ॥18॥


वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं ॥18॥

Given over to egotism, brute force, arrogance, lust and anger etc. and culminating others, they hate Me (the inner controller of all) dwelling in their own bodies as well as in those of others. (18)


अहंकारम् = अहंकार ; बलम् = बल ; दर्पम् = घमण्ड ; कामम् = कामना ; च = और ; क्रोधम = क्रोधादि के ; संश्रिता:= परायण हुए (एवं) ; अभ्यसूयका: = दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष ; आत्मपरदेहेषु = अपने और दूसरों के शरीर में (स्थित); माम् = मुझ अन्तर्यामी से ; प्रद्विषन्त: = द्वेष करने वाले हैं ;



अध्याय सोलह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-16

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15, 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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