गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
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श्रीमद्भगवद्गीता : अष्टादश अध्याय
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते । (10) जो किसी अकुशल अर्थात अकल्याण-कारक कर्म का द्वेष नहीं करता, तथा कल्याण-कारक अथवा हितकारी कर्म में अनुसक्त नहीं होता, उसे सत्त्वशील बुद्धिमान और संदेह-विरहित त्यागी अर्थात संन्यासी करना चाहिये। (11) जो देहधारी है, उससे कर्मों का निःशेष त्याग होना सम्भव नहीं हैं; अतएव जिसने कर्म न छोड़ कर केवल कर्मफलों का त्याग किया हो, वही (सच्चा) त्यागी अर्थात संन्यासी है। तिलक के अनुसार-[अब यह बतलाते है कि उक्त प्रकार से अर्थात कर्म न छोड़कर केवल फलाशा छोड़ करके जो त्यागी हुआ हो, उसे उसके कर्म के कोई भी फल बन्धक नहीं होते-] (12) मृत्यु के अनन्तर अत्यागी मनुष्य को अर्थात फलाशा का त्याग न करने-वाले को तीन प्रकार के फल मिलते हैं; अनिष्ट, इष्ट और कुछ इष्ट और (कुछ अनिष्ट मिला हुआ) मिश्र। परन्तु संन्यासी को अर्थात फलाशा छोड़ कर कर्म करने वाले को (ये फल) नहीं मिलते, अर्थात बाधा नहीं कह सकते। तिलक के अनुसार-[त्याग, त्यागी और संन्यासी-सम्बन्धी उक्त विचार पहले[1] कई स्थानों में आ चुके हैं, उन्हीं का यहाँ उपसंहार किया गया है। समस्त कर्मों का संन्यास गीता को कभी इष्ट नहीं है। फलाशा का त्याग करने वाला पुरुष ही गीता के अनुसार सच्चा अर्थात नित्य-संन्यासी है[2]। ममतायुक्त फलाशा का अर्थात अहंकार बुद्धि का त्याग ही सच्चा त्याग है। इसी सिद्धांत को दृढ़ करने के लिये अब और कारण दिखलाते है-] |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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