गीता रहस्य -तिलक पृ. 789

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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श्रीमद्भगवद्गीता : चतुर्दश अध्याय

श्रीभगवानुवाच
परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता: ।। 1 ।।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता: ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।। 2 ।।
मम योनिर्महद्बब्रह्य तस्मिन गर्भ दधाम्यहम् ।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।। 3 ।।
सर्वयोनिषु कौंतेय मूर्तय: सम्भवन्ति या: ।
तासां ब्रह्मा महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता ।। 4 ।।

श्रीभगवान् ने कहा-(1) और फिर सब ज्ञानों से उत्तम ज्ञान बतलाता हूँ, कि जिसको जान कर सब मुनि लोग इस लोक से परम सिद्धि पा गये हैं। (2) इस ज्ञान का आश्रय करके मुझसे एकरूपता पाये हुए लोग, सृष्टि के उत्पत्तिकाल में भी नहीं जन्मते और प्रलयकाल में भी व्यथा नहीं पाते (अर्थात् जन्ममरण से एकदम छुटकारा पा जाते हैं)।

तिलक के अनुसार-[यह हुई प्रस्तावना। अब पहले बतलाते हैं कि प्रकृति मेरा ही स्वरूप है; फिर सांख्यों के द्वैत को अलग कर, वेदान्तशास्त्र के अनुकूल यह निरूपण करते हैं, कि प्रकृति के सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से सृष्टि के नाना प्रकार के व्यक्त पदार्थ किस प्रकार निर्मित होते हैं-]

(3) हे भारत! महद्ब्रह्म अर्थात् प्रकृति मेरी ही योनि है, मैं उसमें गर्भ[1] रखता हूँ; फिर उससे समस्त भूत उत्पन्न होने लगते हैं। (4) हे कौन्तेय! (पशु-पक्षी आदि) सब योनियों में जो मूर्तियाँ जन्मती हैं, उनकी योनि महत् ब्रह्म है और मैं बीजदाता पिता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. र. 100

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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