गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
श्रीमद्भगवद्गीता : चतुर्दश अध्याय
श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान् ने कहा-(1) और फिर सब ज्ञानों से उत्तम ज्ञान बतलाता हूँ, कि जिसको जान कर सब मुनि लोग इस लोक से परम सिद्धि पा गये हैं। (2) इस ज्ञान का आश्रय करके मुझसे एकरूपता पाये हुए लोग, सृष्टि के उत्पत्तिकाल में भी नहीं जन्मते और प्रलयकाल में भी व्यथा नहीं पाते (अर्थात् जन्ममरण से एकदम छुटकारा पा जाते हैं)। तिलक के अनुसार-[यह हुई प्रस्तावना। अब पहले बतलाते हैं कि प्रकृति मेरा ही स्वरूप है; फिर सांख्यों के द्वैत को अलग कर, वेदान्तशास्त्र के अनुकूल यह निरूपण करते हैं, कि प्रकृति के सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से सृष्टि के नाना प्रकार के व्यक्त पदार्थ किस प्रकार निर्मित होते हैं-] (3) हे भारत! महद्ब्रह्म अर्थात् प्रकृति मेरी ही योनि है, मैं उसमें गर्भ[1] रखता हूँ; फिर उससे समस्त भूत उत्पन्न होने लगते हैं। (4) हे कौन्तेय! (पशु-पक्षी आदि) सब योनियों में जो मूर्तियाँ जन्मती हैं, उनकी योनि महत् ब्रह्म है और मैं बीजदाता पिता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. र. 100
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