गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
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श्रीमद्भगवद्गीता : त्रयोदश अध्याय
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते। (12) ( अब तुझे ) वह बतलाता हूँ ( कि ) जिसे जान लेने से ‘अमृत’ अर्थात मोक्ष मिलता है। ( वह ) अनादि, ( सब से ) परे का ब्रह्म है। न उसे ‘सत’ कहते हैं और न ‘असत’ ही। (13) उसके, सब ओर हाथ-पैर हैं; सब ओर आंखें, सिर और मुँह हैं; सब ओर कान हैं; और वही इस लोक में सब को व्याप रहा है। (14) ( उसमें ) सब इन्द्रियों के गुणों का आभास है, पर उसके कोई भी इन्द्रिय नहीं है; वह ( सब से ) असक्त अलग हो कर भी सब का पालन करता है; और निर्गुण होने पर भी गुणों का उपभोग करता है। (15) ( वह ) सब भूतों के भीतर और बाहर भी है; अचर है और चर भी है; सूक्ष्म होने के कारण वह अविज्ञेय है; और दूर होकर भी समीप है। (16) वह (तत्त्वतः) ‘अविभक्त’ अर्थात् अखंडित होकर भी, सब भूतों में मानों (नानात्व से) विभक्त हो रहा है; और (सब) भूतों का पालन करने वाला, ग्रसने वाला एवं उत्पन्न करने वाला भी उसे ही समझना चाहिये। वह (तत्त्वतः) ‘अविभक्त’ अर्थात् अखंडित होकर भी, सब भूतों में मानों (नानात्त्व से) विभक्त हो रहा है; और (सब) भूतों का पालन करने वाला, ग्रसने वाला एवं उत्पन्न करने वाला भी उसे ही समझना चाहिये। (17) उसे ही तेज का भी तेज, और अन्धकार से परे का कहते हैं; ज्ञान, जो जानने योग्य है वह (ज्ञेय), और ज्ञानगम्य अर्थात् ज्ञान से (ही) विदित होने वाला भी (वही) है, सब के हृदय में वही अधिष्ठित है। तिलक के अनुसार-[अचिन्त्य और अक्षर परब्रह्म- जिसे कि क्षेत्रज्ञ अथवा परमात्मा भी कहते हैं -[1] का जो वर्णन ऊपर है, वह आठवें अध्याय वाले अक्षर ब्रह्म के वर्णन के समान[2] उपनिषदों के आधार पर किया गया है। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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