गीता रहस्य -तिलक पृ. 781

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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श्रीमद्भगवद्गीता : त्रयोदश अध्याय

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्मा न सत्तन्नासदुच्यते।। 12।।
सर्वत:पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत:श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।। 13।।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।। 14।।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।। 15।।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृं च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।। 16।।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम्।। 17।।

(12) ( अब तुझे ) वह बतलाता हूँ ( कि ) जिसे जान लेने से ‘अमृत’ अर्थात मोक्ष मिलता है। ( वह ) अनादि, ( सब से ) परे का ब्रह्म है। न उसे ‘सत’ कहते हैं और न ‘असत’ ही। (13) उसके, स‍ब ओर हाथ-पैर हैं; सब ओर आंखें, सिर और मुँह हैं; सब ओर कान हैं; और वही इस लोक में सब को व्‍याप रहा है। (14) ( उसमें ) सब इन्द्रियों के गुणों का आभास है, पर उसके कोई भी इन्द्रिय नहीं है; वह ( सब से ) असक्‍त अलग हो कर भी सब का पालन करता है; और निर्गुण होने पर भी गुणों का उपभोग करता है। (15) ( वह ) सब भूतों के भीतर और बाहर भी है; अचर है और चर भी है; सूक्ष्‍म होने के कारण वह अविज्ञेय है; और दूर होकर भी समीप है। (16) वह (तत्त्वतः) ‘अविभक्त’ अर्थात् अखंडित होकर भी, सब भूतों में मानों (नानात्व से) विभक्त हो रहा है; और (सब) भूतों का पालन करने वाला, ग्रसने वाला एवं उत्पन्न करने वाला भी उसे ही समझना चाहिये। वह (तत्त्वतः) ‘अविभक्त’ अर्थात् अखंडित होकर भी, सब भूतों में मानों (नानात्त्व से) विभक्त हो रहा है; और (सब) भूतों का पालन करने वाला, ग्रसने वाला एवं उत्पन्न करने वाला भी उसे ही समझना चाहिये। (17) उसे ही तेज का भी तेज, और अन्धकार से परे का कहते हैं; ज्ञान, जो जानने योग्य है वह (ज्ञेय), और ज्ञानगम्य अर्थात् ज्ञान से (ही) विदित होने वाला भी (वही) है, सब के हृदय में वही अधिष्ठित है।

तिलक के अनुसार-[अचिन्त्य और अक्षर परब्रह्म- जिसे कि क्षेत्रज्ञ अथवा परमात्मा भी कहते हैं -[1] का जो वर्णन ऊपर है, वह आठवें अध्याय वाले अक्षर ब्रह्म के वर्णन के समान[2] उपनिषदों के आधार पर किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 13. 22
  2. गी. 8.9 -11

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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