गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
श्रीमद्भगवद्गीता : चतुर्थ अध्याय
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। (14) मुझे कर्म का लेप अर्थात् बाधा नहीं होती; ( क्योंकि ) कर्म के फल में मेरी इचछा नहीं है। जो मुझे इस प्रकार जानता है, उसे कर्म की बाधा नहीं होती। तिलक के अनुसार-[ऊपर नवम श्लोक में जो दो बाते कही हैं, कि मेरे ‘ जन्म ‘ और ‘ कर्म ‘ को जो जानता है वह मुक्त हो जाता है, उनमें से कर्म के तत्त्व का स्पष्टीकरण इस श्लोक में किया है। ‘जानता है’ शब्द से यहाँ ‘’जान कर तदनुसार बर्तने लगता है ‘’ इतना अर्थ विवक्षित है। भावार्थ यह है, कि भगवान को उनके कर्म की बाधा नहीं होती, इसका यह कारण है कि वे फलाशा रख कर काम ही नहीं करते; और इसे जान कर तदनुसार जो बर्तता है उसको कर्मों का बन्धन नहीं होता। अब, इस श्लोक के सिद्धान्त को ही प्रत्यक्ष उदाहरण से दृढ़ करते हैं-] (15) इसे जान कर प्राचीन समय के मुमुक्षु लोगों ने भी कर्म किया था। इसलिये पूर्व के लोगों के किये हुए अति प्राचीन कर्म को ही तू कर! तिलक के अनुसार-[इस प्रकार मोक्ष और कर्म का विरोध नहीं है, अतएव अर्जुन को निश्चित उपदेश किया है, कि तू कर्म कर। परन्तु संन्यास मार्ग वालों का कथन है कि ‘’ कर्मों के छोड़ने से अर्थात् अकर्म से ही मोक्ष मिलता है; ‘’इस पर यह शंका होती है कि ऐसे कथन का बीज क्या है? अतएव अब कर्म और अकर्म के विवेचन का आरम्भ करके तेईसवें श्लोक में सिद्धान्त करते हैं, कि अकर्म कुछ कर्मत्याग नहीं है, निष्काम-कर्म को ही अकर्म कहना चाहिये।] (16) इस विषय में बड़े बड़े विद्वानों को भी भ्रम हो जाता है कि कौन कर्म है और कौन अकर्म; ( अतएव ) वैसा कर्म तुझे बतलाता हूँ कि जिसे जान लेने से तू पाप से मुक्त होगा। तिलक के अनुसार-[‘अकर्म नञ्समास है। व्याकरण की रीति से उसके अ=नञ् शब्द के, अभाव ‘ अथवा ‘ अप्राशस्त्य ‘ दो अर्थ हो सकते है; और यह नहीं कह सकते, कि इस स्थल पर ये दोनो ही अर्थ विवक्षित न होंगे। परन्तु अगले श्लोक में ‘ विकर्म ‘ नाम से कर्म का एक और तीसरा भेद किया है, अतएव इस श्लोक में अकर्म शब्द से विशेषत: वही कर्मत्याग उद्दिष्ट है जिसे संन्यास मार्ग वाले लोग ‘ कर्म का स्वरूपत: त्याग’ कहते हैं। संन्यास मार्ग वाले कहते हैं कि ‘ सब कर्म छोड़ दो; ‘ परन्तु 18 वें श्लोक की टिप्पणी से देख पड़ेगा, कि इस बात को दिखलाने के लिये ही यह विवेचन किया गया है कि कर्म को बिल्कुल ही त्याग देने की कोई आवश्कता नहीं है, संन्यास मार्ग वालों का कर्म त्याग सच्चा ‘ अकर्म ‘ नहीं है, अकर्म का मर्म ही कुछ और है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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