गीता रहस्य -तिलक पृ. 625

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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श्रीमद्भगवद्गीता : द्वितीय अध्याय

अतएव प्रगट ही है, कि जिसे मोक्ष प्राप्त करना हो, वह वैदिक कर्मकाण्ड़ के इन त्रिगुणात्मक और निरे योग-क्षेम सम्पादन कराने वाले कर्मों को छोड़कर अपना चित्त इसके परे परब्रह्म की ओर लगावे। इसी अर्थ में निर्द्वन्द्व और निर्योगक्षेमवान शब्द ऊपर आये हैं। यहाँ ऐसी शंका हो सकती है, कि वैदिक कर्मकाण्ड़ के इन काम्य कर्मों को छोड़ देने से योग-क्षेम (निर्वाह) कैसे होगा[1]। किंतु इसका उत्तर यहाँ नहीं दिया, यह विषय आगे फिर नवें अध्याय में आया है, वहाँ कहा है; कि इस योग-क्षेम को भगवान करते है; और इन्हीं दो स्थानों गीता में ‘योगक्षेम’ शब्द आया है (गी. 9. 22 और उस पर हमारी टिप्पणी देखो)। नित्यसत्त्वस्थ पद का ही अर्थ त्रिगुणातीत होता है। क्योंकि आगे कहा है, कि सत्त्वगुण के नित्य उत्कर्ष से ही फिर त्रिगुणातीत अवस्था प्राप्त होती है, जोकि सच्ची सिद्धावस्था है[2]

तात्पर्य यह है, कि मीमांसकों के योगक्षेमकारक त्रिगुणात्मक काम्य कर्म छोड़ कर एवं सुख-दु:ख के द्वन्द्वों से निबट कर ब्रह्मनिष्ठ अथवा आत्मनिष्ठ होने के विषय में यहाँ उपदेश किया गया है। किंतु इस बात पर फिर भी ध्यान देना चाहिये, कि आत्मनिष्ठ होने का अर्थ सब कर्मों को स्वरूपत: एकदम छोड़ देना नहीं है। ऊपर के श्लोक में वैदिक काम्य कर्मों की जो निन्दा की गई है या जो न्यूनता दिखलाई गई है, वह कर्मों की नहीं, बल्कि उन कर्मों के विषय में जो काम्यबुद्धि होती है, उसकी है। यदि यह काम्यबुद्धि मन में न हो, तो निरे यज्ञ-याग किसी भी प्रकार से मोक्ष के लिये प्रतिबन्धक नहीं होते[3]। आगे अठारहवें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने अपना निश्चित और उत्तम मत बतलाया है, कि मीमांसकों के इन्हीं यज्ञ-याग आदि कर्मों को फलाशा और संग छोड़ कर चित्त की शुद्धि और लोकसंग्रह के लिये अवश्य करना चाहिये[4]गीता की इन दो स्थानों की बातों को एकत्र करने से यह प्रगट हो जाता है, कि इस अध्याय के श्लोक में मीमांसकों के कर्मकाण्ड़ की जो न्यूनता दिखलाई गई है, वह उसकी काम्यबुद्धि को उद्देश करके है–क्रिया के लिये नहीं है। इसी अभिप्राय को मन में ला कर भागवत में भी कहा है–

वेदोक्तमेव कुर्वाणो नि:संगोऽर्पितमीश्वरे।
नैष्कर्म्यो लभते सिद्धिं रोचनार्थ फलश्रुति:॥

“वेदोक्त कर्मों की वेद में जो फलश्रुति कही है, वह रोचनार्थ है अर्थात इसीलिये है कि कर्त्ता को ये कर्म अच्छे लगें। अतएव इन कर्मों को उस फल-प्राप्ति के लिये न करें, किंतु नि:संग बुद्धि से अर्थात फल की आशा छोड़ कर ईश्वरार्पण बुद्धि से करें। जो पुरुष ऐसा करता है, उसे नैष्कर्म्य से प्राप्त होने वाली सिद्धि मिलती है”[5]। सारांश, यद्यपि वेदों में कहा है, कि अमुक अमुक कारणों के निमित्त यज्ञ करे, तथापि इसमें न भूल कर केवल इसीलिये यज्ञ करें कि वे यष्टव्य हैं अर्थात यज्ञ करना अपना कर्त्तव्य है; काम्यबुद्धि को तो छोड़ दे, पर यज्ञ को न छोड़े[6]; और इसी प्रकार अन्यान्य कर्म भी किया करे–यह गीता के उपदेश का सार है और यही अर्थ अगले श्लोक में व्यक्त किया गया है।]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.र. पृ. 293 और 384 देखो
  2. गी. 14. 14 और 20, गी.र. पृ. 166 और 167 देखो
  3. गी.र. पृ. 292–295
  4. गी. 18. 6
  5. भाग. 11. 3. 46
  6. गी. 17. 11

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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