गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तीसरा प्रकरण
इसे वह ‘आध्यात्मिक’ कहता है। परन्तु जब इस रीति से सृष्टि का विचार करने पर भी प्रत्यक्ष उपयोगी शास्त्रीय ज्ञान की कुछ वृद्धि नहीं हो सकी, तब अंत में मनुष्य सृष्टि के पदार्थों के दृश्य गुण-धर्मों ही का और भी अधिक विचार करने लगा, जिससे वह रेल और तार सरीखे उपयोगी आविष्कारों को ढूंढ़कर बाह्य सृष्टि पर अपना अधिक प्रभाव जमाने लग गया है। इस मार्ग को कोंट ने’ आधिभौतिक’ नाम दिया है। उसने निश्चित किया है कि किसी भी शास्त्र या विषय का विवेचन करने के लिये, अन्य मार्गों की अपेक्षा, यही आधिभौतिक मार्ग अधिक श्रेष्ठ और लाभकारी है। कोंट के मतानुसार, समाजशास्त्र या कर्म योगशास्त्र का तात्विक विचार करने के लिये, इसी आधिभौतिक मार्ग का अवलम्ब करना चाहिये। इस मार्ग का अवलम्ब करके इस पंडित ने इतिहास की आलोचना की और सब व्यवहार शास्त्रों का यही मथितार्थ निकाला है कि, इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का परमधर्म यही है कि वह समस्त मानव-जाति पर प्रेम रख कर सब लोगों का कल्याण के लिये सदैव प्रयत्न करता रहे। इसके उलटा कान्ट हेगेल, शोपेनहर आदि जर्मन तत्त्व ज्ञानी पुरुषों ने, नीतिशास्त्र के विवेचन के लिये, इस आधिभौतिक पद्धति को अपूर्ण माना है; हमारे वेदान्तियों की नई अध्यात्म दृष्टि से ही नीति का समर्थन करने के मार्ग को, आज कल उन्होंने यूरोप में फिर भी स्थापित किया है। इसके विषय में और अधिक आगे लिखा जायगा। एक ही अर्थ विवक्षित होने पर भी ’’अच्छा और बुरा’’ के पर्यायवाची भिन्न भिन्न शब्दों का, जैसे “कार्य- अकार्य’’ और “धर्म-अधर्म’’ का, उपयोग क्यों होने लगा। इसका कारण यही है कि विषय प्रतिपादन का मार्ग या दृष्टि प्रत्येक की भिन्न भिन्न होती है। अर्जुन के सामने यह प्रश्न था, कि जिस युद्ध में भीष्म द्रोण आदि का वध करना पड़ेगा उसमें शामिल होना उचित है या नहीं [1]। यदि इसी प्रश्न के उत्तर देने का मौका किसी आधिभौतिक पंडित पर आता, तो वह पहले इस बात का विचार करता कि भारतीय युद्ध से स्वयं अर्जुन को दृश्य हानि-लाभ कितना होगा और कुल समाज पर उसका क्या परिणाम होगा। यह विचार करके तब उसने यह निश्चय किया होता कि युद्ध करना “न्याय’’ है या “अन्याय" इसका कारण यह है कि किसी कर्म के अच्छेपन या बुरेपन का निर्णय करते समय ये आधिभौतिक पंडित यही सोचा करते हैं कि इस संसार में उस कर्म का आधिभौतिक परिणाम अर्थात प्रत्यक्ष बाहय परिणाम क्या हुआ होगा। ये लोग इस आधिभौतिक कसौटी के सिवा और किसी साधन या कसौटी को नहीं मानते। परन्तु ऐसे उत्तर से अर्जुन का समाधान होना संभव नहीं था। उसकी दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक थी। उसे केवल अपने सांसारिक हित का विचार नहीं करना था; किंतु उसे पारलौकिक दृष्टि से यह भी विचार कर लेना था कि इस युद्ध का परिणाम मेरे आत्मा पर श्रेयस्कर होगा या नहीं। उसे ऐसी बातों पर कुछ भी शकां नहीं थी कि युद्ध में भीष्म-द्रोण आदि का वध होने पर तथा राज्य मिलने पर मुझे ऐहिक सुख मिलेगा कि नहीं; और मेरा अधिकार लोगों को दुर्योधन से अधिक सुखदायक होगा या नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. 2.7
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