गीता रहस्य -तिलक पृ. 567

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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परिशिष्‍ट-प्रकरण
भाग 5–वर्तमान गीता का फल ।

अर्थात “तेरा कर्त्तव्य हो चुका, तुझे उत्तम गति मिल गई, अब तेरे लिये तिल भर भी कर्त्तव्य नहीं रहा;” और आगे स्पष्ट रूप से यह उपदेश किया है, कि– विहाय तस्मादिह कार्यमात्मन: कुरु स्थिरात्मंपरकार्यमप्यथो॥
अर्थात “अतएव अब तू अपना कार्य छोड़, बुद्धि को स्थिर करके परकार्य किया कर”[1]। बुद्ध के कर्मत्याग विषयक उपदेश में-कि जो प्राचीन धर्मग्रंथों में पाया जाता है–तथा इस उपदेश में (कि जिसे सौंदरानन्द काव्य में अश्वघोष ने बुद्ध के मुख से कहलाया है) अत्यंत भिन्नता है। और अश्वघोष की इन दलीलों में तथा गीता के तीसरे अध्याय में जो युक्ति-प्रयुक्तियाँ हैं, उनमें–“तस्य कार्य न विद्यते...........तस्मादसक्त: सततं कार्य कर्म समाचार” अर्थात तेरे लिये कुछ रह नहीं गया है, इसलिये जो कर्म प्राप्त हों उनको निष्काम बुद्धि से किया कर [2]-न केवल अर्थदृष्टि से ही किंतु शब्दश: समानता है। अतएव इससे यह अनुमान होता है, कि ये दलीलें अश्वघोष को गीता ही से मिली है। इसका कारण ऊपर बतला ही चुके हैं कि अश्वघोष से भी पहले महाभारत था। परंतु इसे केवल अनुमान ही न समझिये। बुद्धधर्मानुयायी तारानाथ ने बुद्ध-धर्मविषयक इतिहास-सम्बन्धी जो ग्रंथ तिब्बती भाषा में लिखा है, उसमें लिखा है कि बौद्धों के पूर्वकालीन संन्यास-मार्ग में महायान पंथ ने जो कर्मयोगविषयक सुधार किया था, उसे ‘ज्ञानी श्रीकृष्ण और गणेश’ से महायान पंथ के मुख्य पुरस्कर्ता नागार्जुन के गुरु राहुलभद्र ने जाना था।

इस ग्रंथ का अनुवाद रूसी भाषा से जर्मन भाषा में किया गया है–अंग्रेजी में अभी नहीं हुआ है। ड़ाक्टर केर्न ने 1896 ईसवी में बुद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिखी थी। यहाँ उसी से हमने यह अवतरण लिया है[3]। ड़ाक्टर केर्न का भी यही मत है, कि यहाँ पर श्रीकृष्ण के नाम से भगवद्गीता ही का उल्लेख किया गया है। महायान पंथ के बौद्ध ग्रंथों में से, ‘सद्धर्मपुंड़रीक’ नामक ग्रंथ में भी भगवद्गीता के श्लोकों के समान कुछ श्लोक हैं। परंतु इन बातों का और अन्य बातों का विवेचन अगले भाग में किया जायेगा। यहाँ पर केवल यही बतलाना है, कि बौद्ध ग्रंथकारों के ही मतानुसार मूल बौद्धधर्म के संन्यास-प्रधान होने पर भी, उसमें भक्ति-प्रधान तथा कर्म-प्रधान महायान पंथ की उत्पत्ति भगवद्गीता के कारण ही हुई है; और अश्वघोष के काव्य से गीता की जो ऊपर समता बतलाई गई है उससे, इस अनुमान को और भी दृढ़ता प्राप्त हो जाती है। पश्चिमी पंड़ितों का निश्चय है कि महायान पंथ का पहला पुरस्कर्ता नागार्जुन शक के लगभग सौ ड़ेढ़ सौ वर्ष पहले हुआ होगा, और यह तो स्पष्ट ही है कि इस पंथ का बीजारोपण अशोक के राजशासन के समय में हुआ होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सौं. 18. 57
  2. गी. 3. 17, 19
  3. See Dr. Kern’s Manual of Indian Buddhism, Grundriss, III. 8. p. 122. महायान पंथ के ‘अमितायुसुत्त’ नामक मुख्य ग्रंथ का अनुवाद चीनी भाषा में सन 148 के लगभग किया गया था। गी. र. 72

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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