गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
परिशिष्ट-प्रकरण
भाग 5–वर्तमान गीता का फल ।
अर्थात “तेरा कर्त्तव्य हो चुका, तुझे उत्तम गति मिल गई, अब तेरे लिये तिल भर भी कर्त्तव्य नहीं रहा;” और आगे स्पष्ट रूप से यह उपदेश किया है, कि–
विहाय तस्मादिह कार्यमात्मन: कुरु स्थिरात्मंपरकार्यमप्यथो॥ इस ग्रंथ का अनुवाद रूसी भाषा से जर्मन भाषा में किया गया है–अंग्रेजी में अभी नहीं हुआ है। ड़ाक्टर केर्न ने 1896 ईसवी में बुद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिखी थी। यहाँ उसी से हमने यह अवतरण लिया है[3]। ड़ाक्टर केर्न का भी यही मत है, कि यहाँ पर श्रीकृष्ण के नाम से भगवद्गीता ही का उल्लेख किया गया है। महायान पंथ के बौद्ध ग्रंथों में से, ‘सद्धर्मपुंड़रीक’ नामक ग्रंथ में भी भगवद्गीता के श्लोकों के समान कुछ श्लोक हैं। परंतु इन बातों का और अन्य बातों का विवेचन अगले भाग में किया जायेगा। यहाँ पर केवल यही बतलाना है, कि बौद्ध ग्रंथकारों के ही मतानुसार मूल बौद्धधर्म के संन्यास-प्रधान होने पर भी, उसमें भक्ति-प्रधान तथा कर्म-प्रधान महायान पंथ की उत्पत्ति भगवद्गीता के कारण ही हुई है; और अश्वघोष के काव्य से गीता की जो ऊपर समता बतलाई गई है उससे, इस अनुमान को और भी दृढ़ता प्राप्त हो जाती है। पश्चिमी पंड़ितों का निश्चय है कि महायान पंथ का पहला पुरस्कर्ता नागार्जुन शक के लगभग सौ ड़ेढ़ सौ वर्ष पहले हुआ होगा, और यह तो स्पष्ट ही है कि इस पंथ का बीजारोपण अशोक के राजशासन के समय में हुआ होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सौं. 18. 57
- ↑ गी. 3. 17, 19
- ↑ See Dr. Kern’s Manual of Indian Buddhism, Grundriss, III. 8. p. 122. महायान पंथ के ‘अमितायुसुत्त’ नामक मुख्य ग्रंथ का अनुवाद चीनी भाषा में सन 148 के लगभग किया गया था। गी. र. 72
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